गोल को क्लीयरली समझ कर ही कोई रिस्क लिया जाना चाहिए
जब हम रिस्क शब्द सुनते हैं तो हमारे जेहन में जिंदगी और मौत से जुड़ी सिचुएशंस आ जाती हैं, ऐसी करो या मरो वाली सिचुएशंस मुश्किल से एक ही बार आती है. लेकिन हम में से हर कोई हर रोज रिस्क का सामना करता है. जब आप काम के लिए आखरी मिनट में निकलते हैं तो आप देर हो जाने का रिस्क लेते हैं. जब आप नये रेस्टोरेंट में जाते हैं तो खराब खाने का रिस्क लेते हैं. लेकिन इन सब में फायदे भी हो सकते हैं, चाहे वह अपने बच्चों के साथ ज्यादा वक्त गुजारना हो या किसी नए रेस्टोरेंट में जाकर अपना नया फेवरेट फूड डिस्कवर करना हो, रिस्क कारगर साबित होता है. प्रॉब्लम यह है कि हम में से ज़्यादातर लोगों को रिस्क का सही मतलब ही नहीं मालूम. इसको हम कुछ इस तरह देखते हैं, अगर हम ऐसा कर देंगे तो वैसा हो जाएगा, इसलिए इस काम में रिस्क है. जिंदगी इतनी आसान भी नहीं है. हर रिस्क अपने साथ नतीजों की एक तादाद ले आता है, अगर हम उन्हें समझने में नाकाम हो गए तो मुश्किलों में पड़ सकते हैं. इस समरी में हम रिस्क के बारे में फैली कॉमन गलतफहमियों के बारे में जानेंगे. हम इसे समझने की कोशिश करेंगे और दुनिया के सबसे रिस्की प्रोफेशंस के एग्जांपल से रिस्क के रास्ते में आने वाली नाकामियों से निपटना सीखेंगे, कि वह ऐसी सिचुएशंस का सामना कैसे करते हैं, चाहे दांव पर कुछ मिलेयन डॉलर्स हों या फिर उनकी जिंदगी. उनके ज़रिए हम जानेंगे कि जिंदगी में स्मार्ट और इनफॉर्ड रिस्क कैसे लिया जाए. इसके अलावा आप जानेंगे कि जेट स्की हमें इंश्योरेंस के बारे में क्या बताती है? क्यों आपको एक मल्टी मिलेनियर के साथ पोकर खेलना चाहिए और हॉलीवुड स्टूडियोज़ बोक्स ऑफिस फ्लॉप का सामना कैसे करते हैं?
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तो चलिए शुरू करते हैं!
जब आप एक बहादुर, रिस्की फैसला लेना चाहते हैं तो क्या करते हैं? क्या आप होने वाले नतीजे को कंसीडर किए बिना ही फैसला ले लेते हैं? अगर ऐसा है तो आपको अपना यह नजरिया बदलने की जरूरत है.
अगर आप गोल को लेकर श्योर नहीं है तो कैसे जानेंगे कि रिस्क लेना फायदेमंद है या नहीं? ऐसे में रिस्क ले पाना इंपॉसिबल है. इसलिए सबसे पहले अपने अल्टीमेट गोल को डिफाइन करना बहुत जरूरी है. अपने दिमाग में इसे विजुलाइज कीजिए और गोल को स्पेसिफिक रखिए. अगर आप ज्यादा पैसे कमाने के लिए किसी करियर मूव के बारे में सोच रहे हैं तो क्लियर कीजिए यह कैसे मुमकिन होगा और इस गोल को अचीव करने में कितना वक्त लगेगा.
एक बार आपने गोल डिफाइन कर दिया तो उन सभी रास्तों के बारे में सोचिए जिन पर चलकर आप कम से कम रिस्क से या बिना रिस्क के यह गोल अचीव कर सकते हैं. हां, यह सही बात है, कि यह हमेशा मुमकिन नहीं हो पाएगा हर गोल के लिए आपको रिस्क फ्री रास्ता नहीं मिल पाएगा. या फिर कभी कभी रिस्क फ्री अॉप्शन पॉसिबल नहीं हो पाएगा. मान लीजिए कि आप कोई घर ढूंढ रहे हैं, आपको एक खास कीमत पर, खास जगह, खास तरह का घर चाहिए. आपको पसंदीदा घर मिल भी सकता है लेकिन बोली जीतने के लिए ज्यादा कीमत अदा करनी पड़ सकती है. और अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो आपको कम से समझौता करना पड़ सकता है. यहां पर अपनी कीमत के हिसाब से घर हासिल कर पाने जैसा रिस्क फ्री ऑप्शन है ही नहीं.
दूसरा एग्जांपल लेकर देखिए. नेवादा का लीगल रेड लाइट एरिया. सेक्स वर्कर्स दुनिया का सबसे रिस्की काम करते हैं. इस फील्ड की औरतें अपनी पर्सनल सेफ्टी, सेहत और रेपोटेशन दांव पर लगाती हैं. कभी-कभी तो जेल जाने का भी रिस्क रहता है. लेकिन वह फिर भी यह काम करती हैं क्योंकि इसमें उन्हें काफी पैसे मिलते हैं. लीगल रेड लाइट एरिया में एक कमरा किराए पर लेने से इस काम में मौजूद रिस्क कम हो जाता है. सेक्स वर्कर्स को लगातार हेल्थ चेकअप, और उन्हें खतरनाक क्लाइंट से बचाने के लिए गार्डस की भी जरूरत होती है. यहां पर भी आपको risk-free ऑप्शन की कीमत अदा करनी पड़ेगी. नेवादा में शिफ्ट होने की कीमत के साथ, यह औरतें अपनी कमाई का लगभग आधा हिस्सा रेड लाइट एरिया के मालिक को देती हैं.
आखिर में किसी भी काम के लिए रिस्क लेने के पीछे की वजह एक ही होती है, बिना रिस्क वाला ऑप्शन चुनना महंगा पड़ता है. लेकिन हम यह कैसे डिसाइड करें कि कौन सा काम रिस्क लेने लायक है, इसका कोई एक जवाब नहीं है, लेकिन कौन से काम के लिए रिस्क नहीं लेना चाहिए, इसके जवाब है. जिसके बारे में हम अगले लेसन में जानेंगे.
पुराने नतीजों के आधार पर फ्यूचर के रिस्क का अंदाजा लगाना, गलत तरीका है
सुबह काम के लिए निकलने का वक्त आप कैसे डिसाइड करते हैं? मान लेते हैं, कि आपके रास्ते में लगने वाला वक्त लगभग आधा घंटा है और आपको 8:00 बजे ऑफिस पहुंचना है. इसलिए आप रोज 7:30 पर निकलते हैं. और रोज एक ही वक्त पर पहुंचते हैं, है न? बिल्कुल भी नहीं. असल जिंदगी में, ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जो गलत हो सकती हैं. अगर आपका यह फैसला सिर्फ इस पर बेस्ड है, कि रास्ते में आधे घंटे लगेंगे तो देर-सवेर आपको देर हो ही जाएगी. जब हम रिस्क मेजर करते हैं तो सिर्फ एक पहलू पर ध्यान नहीं देते, हम ऐसी सभी पॉसिबिलिटी को एग्ज़माइन करते हैं जिसके हो जाने के चांसेस हैं. यकीनन, आपका सफर सिर्फ आधा घंटा लेता है. लेकिन अगर मौसम खराब हुआ तो, ऐसे में रास्ते में ज्यादा वक्त लग ही जाएगा. हो सकता है हमेशा रोड पर ऐसा एक्सीडेंट ना होता हो जो ट्राफिक ठप कर दे, लेकिन कभी ना कभी ऐसा होना मुमकिन है. इसलिए आपके लिए काम पर वक्त से पहुंचना जितना जरूरी होगा, आप वहां पहुंचने के लिए उतना ज्यादा वक्त निकालेंगे. हम इस कांसेप्ट को बेसिक लेवल पर समझ लेते हैं. लेकिन जब बिजनेस और इकोनामिक जैसी चीजों में बड़े स्केल पर रिस्क मेजर करने की बात आती है तो यह कंप्लिकेटेड हो जाता है.
हॉलीवुड का एग्जांपल ले लीजिए, मूवीस में लाखों दांव पर लगे होते हैं, इसलिए यह बुनियादी तौर पर रिस्की है. इसलिए जैसी मूवी हिट होती है, एकदम वैसी ही दूसरी मूवी बनाने के लिए स्टूडियोज़ में रेस नहीं लगती. अगर पुराने नतीजे रिस्क मेजरमेंट के लिए बेहतर तरीका होते, तो उन्हीं आइडिया को कॉपी करके बार-बार ब्लॉकबस्टर ही रिलीज की जा सकती थी. यकीनन, यह सही है. अगर आप किसी मूवी स्टूडियो की फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस के कलेक्शन एनालाइज करें, तो आपको समझ में आ जाएगा इनका डिस्ट्रीब्यूशन पैटर्न एक जैसा नहीं है. चंद मूवीज़ ही बहुत पैसा बनाती हैं. लेकिन बहुत सारी ज्यादा नहीं कमा पाती और कुछ कुछ को तो नुकसान उठाना पड़ता है. इस तरह के डिस्ट्रीब्यूशन पैटर्न से यह अंदाजा लगा पाना मुश्किल है कि कौन सी मूवी हिट होगी और कौन सी फ्लॉप. रिस्क मैनेजमेंट की दूसरी बड़ी प्रॉब्लम डेटा है. रिस्क का अंदाजा लगाने के लिए आपको फ्रेश और एक दम सही डेटा की जरूरत पड़ती है. लेकिन यह डेटा बहुत जल्द पुराने हो सकते हैं. इलेक्शन के नतीजा, बॉक्स ऑफिस की कमाई और इकनोमिक ग्रोथ जैसे प्रिडिक्शन करना मुश्किल है. और इनसे जुड़े डेटा रातोंरात बदल सकते हैं. इसलिए, चाहे हम ऑफिस पहुंचने के लिए या फिर बॉक्स ऑफिस हिट के लिए प्रिडिक्शन कर रहे हों हमें पुराने नतीजों के आधार पर फैसले नहीं लेने चाहिए.
जिन तरीकों से हम रिस्क का अंदाजा लगाते हैं, वह हमेशा रेशनल यानी अकलमंदी वाले नहीं होते।
क्या आप लॉटरी डालते हैं? बहुत सारे लोग ऐसा करते हैं. लेकिन उनमें से लगभग हर किसी को मालूम होता है कि वह नहीं जीतेंगे. क्योंकि जैकपोट लगने का चांस लाखों में एक है. कुल मिलाकर हम बस लॉटरी की टिकटों पर अपने पैसे बर्बाद करते हैं. तो गंवाने की पॉसिबिलिटी कमाने से ज्यादा होने के बावजूद क्यों बहुत सारे लोग लॉटरी खेलते हैं?
इकोनॉमिस्ट का मानना है कि हर कोई रिस्क से बचना चाहता है. और कुछ हद तक यह सही भी है. यकीनन हम कुछ भी खोने से बहुत डरते हैं. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. जब हम रिस्क के नतीजों को देखते हैं तो उनके साथ हमारी इमोशनल वैल्यू जुड़ जाती है. इकोनॉमिस्ट इसे युटिलिटी कहते हैं. और जब हम कोई फैसला लेते हैं, तो असल वैल्यू से ज्यादा, यूटिलिटी मायने रखती है.
इमैजिन कीजिए कि आप एक हाई-स्टेक पोकर टूर्नामेंट में खेल रहे हैं. ग्रैंड प्राइज़ 10 मिलियन डॉलर का है. यह सब आपके और एक दूसरे प्लेयर के लिए है. आप या तो पूरा जीतने का चांस ले सकते हैं या फिर अपने अपोनेंट के साथ समझौता कर आधा आधा बांट सकते हैं. 5 मिलियन डॉलर बहुत होता है इसलिए आमतौर पर हम उसी रास्ते को चुनेंगे जहां पर फायदे की गारंटी हो. लेकिन अगर आपके सामने वाला पहले से ही मल्टी मिलेनियर है, तो उसके लिए इतने पैसे की कोई कीमत नहीं. उसके गेम में बने रहने के चांसेस ज्यादा है, क्योंकि वह पैसा नहीं जीतने का एक्सपीरियंस चाहता है. वैल्यू के बजाए युटिलिटी को तवज्जो देने की वजह से हम नतीजे को ओवरस्टिमेट कर देते हैं. हम उस चीज से ज्यादा ही इमोशन जोड़ देते हैं जो कि हकीकत में नुकसानदायक साबित हो सकता है. जैसे कि ऊपर एग्जाम्पल में 5 मिलियन डॉलर ना लेकर जीतने का एक्सपीरियंस हासिल करने की चाहत में हो सकता है कि अपोनेंट पूरे 10 मिलियन डॉलर हार जाए. हम में से कोई भी लॉटरी हारने की उम्मीद से नहीं खेलता, हम सब जीतने की उम्मीद रखते हैं. एक ऐसी जीत, जिसे हम कभी नहीं देखेंगे.
जब हम किसी चीज में इमोशनल वैल्यू जोड़ देते हैं तो वहां पर रिस्क की पॉसिबिलिटी बढ़ जाती है. एक बार फिर लॉटरी का ही एग्जांपल लीजिए. आपने ना जाने कितनी बार सुना होगा, “अगर खेलेंगे नहीं तो जीतेंगे कैसे?” बात सही है लेकिन यह इस प्रोसेस में मौजूद रिस्क को कमतर आँकता है. इमेजिन कीजिए कि अगर यह कहा जाता, “अगर आप खेलेंगे नहीं तो जीतेंगे कैसे, लेकिन अगर आप खेलते हैं तो हो सकता है आप ना जीत पाए” तो कितने लोग टिकट खरीदते?
अगर हम सच में पोटेंशियल रिस्क को इवेलुएट करना चाहते हैं तो हमें इस रुकावट से अवेयर रहना होगा और देखना होगा कि हमें जानकारियां कैसे परोसी जाती हैं. मान लीजिए कि आपको पता चलता है कि आपकी दवाओं की वजह से एनीमिया के चांस डबल हो सकते हैं. पहली नजर में आप दवाइयां ना लेने के बारे में ही सोचेंगे, है ना? लेकिन जब आप ध्यान से देखेंगे तो जानेंगे कि 8000 में से 1 से बढ़कर यह चांस 8000 में से 2 हो गया है तो रिस्क उतना ज्यादा नहीं है जितना आपको बताया गया है. एक बार हम किसी भी फैसले के फायदे और नुकसान के बारे में समझ लें, तो हम रिस्क को भी जज कर सकते हैं.
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डाइवर्सिफिकेशन गैरज़रुरी रिस्क को कम कर देता
रिस्क एनालिसिस्ट रिस्क को दो कैटेगिरीज़ में बांटते हैं. आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क खास फील्ड और ऐसेट तक ही लिमिटेड है. मिसाल के तौर पर, आपने जिस कंपनी के स्टॉक खरीदे हैं उसकी लीडरशिप में कोई बदलाव आता है तो यह आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क में आएगा. वहीं सिस्टेमैटिक रिस्क सिर्फ किसी इंसान पर नहीं बल्कि पूरे के पूरे स्ट्रक्चर पर असर डालता है. अगर मंदी आती है तो यह सिर्फ किसी स्टॉक पर नहीं बल्कि पूरे के पूरे स्टॉक एक्सचेंज पर असर डालेगी. चलिए पहले आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क की बात करते हैं, आप इसके लिए प्रिपरेशन कैसे कर सकते हैं.
डाइवर्सिफिकेशन यह कहने का फैंसी तरीका है कि “अपने सारे अंडे एक ही ट्रे में मत रखो.” डाइवर्सिफिकेशन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल फाइनेंस में देखा जा सकता है. अपने स्टॉक में डायवर्सिटी रखकर आप फाइनेंस में आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क से बच सकते हैं. स्टॉक मार्केट के अलावा डायवर्सिफिकेशन का एग्जांपल और भी जगह मिल सकता है. याद है कुछ देर पहले हम हॉलीवुड की बात कर रहे थे? एक वक्त पर सिर्फ एक दो नहीं बल्कि मूवी की पूरी की पूरी स्लेट बनाकर स्टूडियोज डायवर्सिफाई करते हैं. इस तरीके से हिट होने वाली मूवी से फ्लॉप होने वाली मूवी का नुकसान भरा जा सकता है. वह डिस्ट्रीब्यूशन के मीडियम में भी डायवर्सिफिकेशन का तरीका अपनाते हैं. थियेटर में रिलीज करने के साथ ही, कई होम वीडियोज़, टीवी और स्ट्रीमिंग सर्विस को लाइसेंस देकर भी पैसे कमाए जाते हैं.
हॉर्स ब्रीडिंग में डायवर्सिफिकेशन का भरपूर इस्तेमाल होता है. एक चैंपियन घोड़ा स्टड फीस में सैकड़ो हजारों डॉलर कमाता है. उसके कैरेक्टरस्टिक्स को रीक्रिएट करने के लिए पहले साल में उसे लगभग 100 से ज्यादा घोड़ियों के साथ ब्रीड कराया जा सकता है. लेकिन अगले चार पांच साल बाद ही पता चलेगा उसके जरिए पैदा किए गए दूसरे घोड़े वही लेवल रखते हैं या नहीं. आने वाली जनरेशन में फर्क लाने का इकलौता तरीका यह है कि जब तक घोड़ा डिमांड में हो उससे ज्यादा से ज्यादा घोड़ियों के साथ रिप्रोडक्शन कराना चाहिए.
आज की साइंस और टेक्नोलॉजी डायवर्सिफिकेशन को पहले से कहीं आसान बना दे रही है. एक अच्छा फाइनेंशियल एनालिसिस्ट वेल बैलेंस पोर्टफोलियो तैयार कर सकता है, जो रिस्क की पॉसिबिलिटी कम कर देता है. वेटेनरी साइंस घोड़े और घोड़ियों में इस तरीके से रिप्रोडक्शन कराने में सक्सेसफुल है जिसके जरिए ज्यादा से ज्यादा ब्रिलियंट नई जनरेशन के घोड़े पैदा किए जा सके. हो सकता है कंप्यूटर के जरिए हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर ना बनाई जा सके लेकिन डाटा इकट्ठा करके, उनके स्ट्रीमिंग और डाउनलोड के ज़रिए ज्यादा से ज्यादा रिवेन्यू जनरेट किया जा सकता है.
लेकिन डायवर्सिफिकेशन के नुकसान भी हैं. आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क से बचने की ज्यादा कोशिश आपको अगले गूगल में इन्वेस्ट करने के लिए इनकरेज कर सकती है. ज्यादा से ज्यादा डायवर्स पोर्टफोलियो भी स्टॉक एक्सचेंज जैसे सिस्टेमैटिक रिस्क के सामने नहीं टिक पाते.
सेफगार्ड और इंश्योरेंस आपको नुकसान से बचा सकते हैं. रिस्क मैनेजमेंट एक बहुत ही आसान सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है. हम किसी भी चीज के फायदे के साथ बने रहते हुए नुकसान को कैसे कम या खत्म कर सकते हैं. जैसा कि हमने अभी देखा डायवर्सिफिकेशन आइडियोसिंक्रेटिक रिस्क से बचने में मदद करता है लेकिन सिस्टमैटिक रिस्क को कंट्रोल कर पाना मुश्किल है इसके लिए आपको एक से ज्यादा सल्यूशन चाहिए. हम सबको हेजिंग के बारे में मालूम है. जब हम कहते कि हम अपनी “बेट की हेजिंग कर रहे हैं,” दरअसल इसका मतलब है कि हम अपने ऑप्शंस को खुला रख रहे हैं. हेजिंग के दौरान कभी-कभी हमें नुकसान से बचने के लिये फायदे को नज़रअंदाज़ करना पड़ता है. जब आप अपने पूरे स्पेक्ट्रम पर नजर डालते हैं तो हेजिंग इसमें से ज्यादा नुकसान और ज्यादा फायदे दोनों की पॉसिबिलिटी हटा देता है क्योंकि जहां पर ज्यादा फायदे की उम्मीद होगी वहां पर ज्यादा नुकसान भी हो सकता है. हेजिंग का इस्तेमाल इन्वेस्टमेंट स्ट्रेटजी में खासा तौर पर होता है. जब आपका एडवाइजर सिर्फ स्टॉक में ही नहीं बल्कि बांड में भी पैसे लगाने की सलाह देता है, तो इस प्रोसेस को हेजिंग कहते हैं. इससे स्टॉक मार्केट के बदलाव की वजह से होने वाले नुकसान की पॉसिबिलिटी कम हो जाती है. बांड से बहुत फायदा नहीं होता है लेकिन यकीनन इससे नुकसान नहीं होता.
बिज़नेसेस में हिजिंग का इस्तेमाल रेगुलर तौर पर होता है. एयर लाइन इंडस्ट्री की कम्पनियों को ले लीजिए. अगर तेल की कीमत बढ़ती है तो उनका पूरा के पूरा फाइनेंसियल ईयर ही बर्बाद हो सकता है और यहां पर वह इसके लिए हेजिंग का इस्तेमाल करते हैं. और फिक्स रेट पर तेल लेने के लिए कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लेते हैं. अगर तेल की कीमत कम होती है तो उन्हें ज्यादा पैसे चुकाने पड़ सकते हैं लेकिन कीमत बढ़ने की हालत में वह सेफ है.
रिस्क कम करने का एक दूसरा तरीका इंश्योरेंस है. यहां हम पॉसिबल फायदे को बनाए रखते हुए नुकसान की पॉसिबिलिटी ऐबजॉर्ब करने के लिए किसी को पैसे देते हैं. हम वर्चुअल कोई भी कीमत इंश्योर कर सकते हैं. कार इंश्योरेंस लेकर हम एक्सीडेंट की लगातार फिक्र से बच जाते हैं. फाइनेंसियल दुनिया में स्टॉक ऑप्शंस स्टॉक की कीमत बहुत ज्यादा गिरने पर इंश्योरेंस का काम करते हैं. इंश्योरेंस की भी अपनी कीमत होती है. इंश्योरेंस की कीमत से हम इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि सिचुएशन कितनी रिस्की है. मिसाल के तौर पर कैलिफोर्निया में अर्थक्वेक इंश्योरेंस टेनेसी के अर्थक्वेक इंश्योरेंस से महंगा होता है. वही कुछ क्रिटिक्स का यह भी कहना है कि इंश्योरेंस सिक्योरिटी की गलस फीलिंग्स पैदा करके लोगों को गैरजरूरी जोखिम लेने के लिए इंकरेज करता है. मिसाल के तौर पर सर्किंग की दुनिया में जेट स्की आपको अनप्रिडिक्टेबल लहरों से बचाने के लिए इंश्योरेंस का काम करती हैं. चुंकि यह बहुत पॉपुलर होता जा रहा है इसलिए जानकारों का कहना है, कि कुछ सर्फर बिना काबिलियत के भी बहुत आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि अगर उन्हें कुछ हुआ तो आसपास जेटस्कीस तो मौजूद ही हैं. वहीं दूसरी तरफ इसके फायदे भी हैं क्योंकि यह काबिल सर्फर्स को जोखिम लेने और अपना दायरा बढ़ाने के लिए इनकरेज करता है.
अपने आप को रिस्क और उतार–चढ़ाव से बचाना जरूरी है
जैसा कि हमने जाना रिस्क कैलकुलेट करने का मतलब गोल सेट करना और आने वाले सभी नतीजों के लिए प्लानिंग करना है. लेकिन उन नतीजों को कैसे हल किया जाए जिन्हें हमने इमैजिन ही नहीं। किया था. अगर हम सिर्फ प्रिडिक्टेबल नतीजों को ही ध्यान में रखते हैं तो रिस्क मैनेजमेंट के ऐसे ट्रैडिश्नल तरीके नुकसानदायक हो सकते हैं. बहुत सारे सल्यूशन में, हम उन चीजों के बारे में प्रिडिक्शन नहीं । कर सकते जिन्हें होना ही है. और बहुत सारी अनस्टेबल सिचुएशन में हमारी फीलिंग हम पर हावी हो जाती हैं जिससे ध्यान से बनाया हुआ प्लान खराब हो जाता है. इसका सबसे बेहतर एग्जांपल मिलिट्री है. आर्ड फोर्सेस के कंपैरिजन में बहुत कम इंस्टिट्यूशन ही रिस्क मैनेजमेंट के लिए ज्यादा इंतजाम करते हैं. लेकिन फायरिंग के दौरान बेहतर से बेहतर प्लान एक चुटकी में बदल सकता है, ऐसी सिचुएशंस में फ्लैक्सिबिलिटी अपनाना ही बेहतर है. अपनी स्ट्रैटेजी को बदलने के लिए फैसला लेने में वक्त लेने की वजह से जिंदगी और मौत का फासला क्रिएट हो सकता है. कुछ टिप्स को ध्यान में रखकर आप जरूरत के हिसाब से फ्लैक्सिबिलिटी अपना सकते हैं. पहला यह कि नए आइडियाज़ को अपनाने के लिए तैयार है, चाहे वह सबॉर्डिनेट की तरफ से ही क्यों ना आ रहा हों. अगर आप प्यार से अपनी एक्सपर्टाइज़ को बेहतर करना सीख लेते हैं तो इससे कोई आपको कम नहीं अांकेगा. और सिचुएशन चाहे जो भी हो, जरूरत पड़ने पर कोर्स चेंज करने की फ्रीडम रखिए. दूसरों के आइडियाज़ को सुनना तब तक कारगर नहीं होगा जब तक आप उसके हिसाब से कुछ बदलाव नहीं कर लेते.
आज, यह इंश्योर करना बहुत जरूरी है कि हम टेक्नोलॉजी पर ओवरडिपेंडेंट ना हो जाए. ऐसा लगता है कि हम फोन के इस्तेमाल से अपने जिंदगी के हर पहलू पर वर्चुअली कंट्रोल रख सकते हैं चाहे वह बैंकिंग हो या कोई बिल भरना. लेकिन इन्हीं टूल्स का इस्तेमाल हैकर्स और साइबर स्कैमर्स के द्वारा हमारे खिलाफ किया जा सकता है. इन टेक्नोलॉजी को अप-टू-डेट रखकर, रेगुलरली अपना पासवर्ड बदल कर हमें इनकी यूटिलिटी साबित करनी है और अच्छी सर्विस या सब कुछ ठीक होने के दौरान लापरवाह नहीं हो जाना है. रिस्क मैनेजमेंट कोई साइंस का फार्मूला नहीं है जो हर बार सही साबित होगा इंसान अलग अलग होता है और आप हर सिचुएशन और सेनैरियो के लिए प्लानिंग नहीं कर सकते, जितनी मर्जी कोशिश कर लें. लेकिन एजुकेशन, प्रिपरेशन और फ्लैक्सिबिलिटी के चलते आप बेहतर डिसीजन ले सकेंगे और किसी भी रिस्क का सामना कॉन्फिडेंटली कर सकेंगे.
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कुल मिलाकर
अच्छी प्लानिंग, फ्रेश डेटा, डायवर्सिफिकेशन, हेजिंग, इंश्योरेंस और फ्लैक्सिबिलिटी रिस्क मैनेजमेंट के 6 टूल्स हैं. इन 6 तरीकों के जरिए आप किसी भी तरह के रिस्क का सामना कर सकते हैं, चाहे वह फाइनेंशियल प्लानिंग, बिजनेस स्ट्रेटजी हो या फिर अपने पर्सनल रिश्तो को ही मैनेज क्यों न करना हो. रिस्क से डरिए नहीं, इसकी अहमियत को समझिए और इसे मौके की तरह लीजिए.