Wings Of Fire by Abdul Kalam, Arun Tiwari Book Summary in Hindi

Wings Of Fire by Abdul Kalam

Wings Of Fire by Abdul Kalam- मै एक गहरा कुंआ हूँ इस ज़मीन पर बेशुमार लड़के लड़कियों के लिए कि उनकी प्यास बुझाता रहूँ. उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे ज़र्रे पर बरसती है जैसे कुंवा सबकी प्यास बुझाता है. इतनी सी कहानी है मेरी, जैनुलब्दीन और आशिंअम्मा के बेटे की कहानी. उस लड़के की कहानी जो अखबारे बेचकर अपने भाई की मदद करता था. उस शागिर्द की कहानी जिसकी परवरिश शिव सुब्यमानियम अय्यर और आना दोरायिसोलोमन ने की. उस विद्यार्थी की कहानी जिसे पेंडुले मास्टर ने तालीम दी, एम्.जी.के. मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी. जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर सायिन्स्दान बना और उस रहनुमा की कहानी जिसके साथ चलने वाले बेशुमार काबिल और हुनरमंद लोगों की टीम थी.

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मेरी कहानी मेरे साथ ख़त्म हो जायेगी क्योंकि दुनियावी मायनों में मेरे पास कोई पूँजी नहीं है, मैंने कुछ हासिल नहीं किया, जमा नहीं किया, मेरे पास कुछ नहीं और कोई नहीं है मेरा ना बेटा, ना बेटी ना परिवार. मै दुसरो के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता लेकिन शायद कुछ पढने वालो को प्रेणना मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है, खुदा की रहमत है, उनकी वरासत है. मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा फ़कीर और मेरे वालिद जेनालुब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर ख़त्म हो जाएगा लेकीन खुदा की रहमत कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि वो अमर है, लाफ़ानी है. मै शहर रामेश्ट्ररम के एक मिडिल क्लास तमिल खानदान में पैदा हुआ. मेरे अब्बा जेनाब्लुदीन के पास ना तालीम थी ना दौलत लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास.

एक हौसला था और मेरी माँ जैसी मददगार थी आशीअम्मा और उनकी कई औलादों में एक मै भी था बुलंद कामिन माँ बाप का एक छोटा सा कदवाला मामूली शक्ल सूरत वाला लड़का. अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे हम जो कभी बीसवी सदी में बना था. काफी बड़ा और वसील मकान था, रामेश्वरम की मस्जिद स्ट्रीट में. मेरे अब्बा हर तरह के ऐशो आराम से दूर रहते थे मगर ज़रूरियत की तमाम चीज़े मुयस्सर थी. सच तो ये है कि मेरा बचपन बड़ा महफूज़ था दिमागी तौर पर भी और ज़ज्बाती तौर पर भी. मटीरियली और इमोशनली. रामेश्वर का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ दस मिनट की दूरी पर था. हमारे इलाके में ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी फिर भी काफी हिन्दू घराने थे जो बड़े इत्तेफाक से पड़ोस में रहते थे. हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी जहाँ मेरे अब्बा मुझे हर शाम नमाज़ पढने के लिए ले जाया करते थे. रामेश्वरम मंदिर के बड़े पुरोहित बक्षी लक्ष्मण शाश्त्री मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे. अपने बचपन की आंकी हुई यादो में एक याद ये भी थी की अपने अपने रिवायती लिबासो में बेठे हुए वो दोनों कैसे रूहानी मसलो पर देर देर तक बाते करते रहते थे.

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मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलो को भी तमिल की आम जबान में बयान कर लिया करते थे. एक बार मुझसे कहा था” जब आफत आये तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किल हमेशा खुद को परखने का मौका देती है’

मैंने हमेशा अपनी साईंस और टेक्नोलोजी में अब्बा के उसुलूँ पर चलने की कोशिश की है. मै इस बात पर यकीन रखता हूँ की हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामियों से निकाल कर सच्चाई के मुकाम तक पहुचाती है.

मै करीब छह बरस का था जब अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया जिसमे वो यात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोटि का दौरा करा सके. ले जाए और वापस ले आये. वे समुन्दर के साहिल पर लकडिया बिछाकर कश्ती का काम किया करते थे एक और हमारे रिश्तेदार के साथ अहमद जलालुदीन, बाद में उनका निकाह मेरी आपा जोहरा के साथ हुआ. अहमद जलालुदीन हालाँकि मुझसे पंद्रह साल बड़े थे फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गयी थी. हम दोनों ही शाम लम्बी सैर पर निकल जाया करते थे. मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था, जिसके गिर्द हम उतनी ही श्रधा से परिकर्मा करते थे जितनी श्रधा से बाहर से आये हुए यात्री. जलालुदीन ज्यादा पढ़ लिख नहीं सके उनके घर की हालत की वजह से लेकिन मै जिस ज़माने की बात कर रहा हूँ, उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ एक वही शख्स था जो अंग्रेजी लिखना जानता था.

जलालुदीन हमेशा तालीमयाफ्ता भौर पढ़े लिखे लोगो के बारे में बाते करते थे. और एक शख्स जिसने बचपन में मुझे बहुत मुद्दफिक किया वो मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमसुदीन और उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था. हर सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुचता था. सन 1939 में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, द सेकंड वर्ड वार, उस वक्त मै आठ साल का था. हिन्दुस्तान को एतियादी फौज के साथ शामिल होना पड़ा और एक इमरजेंसी जैसे हालात पैदा हो गए थे. सिर्फ पहली दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर ट्रेन का रुकना केंसिल कर दिया गया और अखबारों का गठ्ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोटी के बीच से गुज़रनेवाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता. शमसुदीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा जो अखबारों के गठे सड़क से जमा कर सके, वो मौका मुझे मिला और शमसुदीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना.

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Wings Of Fire by Abdul Kalam- हर बच्चा जो पैदा होता है वो कुछ समाजी और आर्थिक हालात से ज़रूर बशरमान होता है और कुछ अपने ज़ज्बाती माहौल से भी और उसी तरह उसकी तबियत होती है. मुझमे दयानतदारी और सेल्फ डिसपीलीन अपने अब्बा से वरासत में मिला था और माँ से अच्छाई पर यकीन करना और रहमदिली लेकिन जलालुदीन शम्शुदीन की वजह से जो असर मुझ पर पड़ा उससे मेरा बचपन ही महज़ अलग नहीं हुआ बल्कि आईंदा जिंदगी पर भी उसका बहुत बड़ा असर पड़ा. फिर जंग ख़त्म हो गयी और हिन्दुस्तान की आज़ादी बिलकुल यकीनी हो गयी. मैंने अब्बा से रामेश्वरम छोड़ने की इजाज़त चाही. मै डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर रामनाथपुरम जाकर पढना चाहता था. शम्शुदीन और जलालुदीन मेरे साथ रामनाथपुरम तक गए, मुझे स्वार्ट्स हाई स्कूल में दाखिला कराने के लिए. ना जाने क्यों वो नया माहौल मुझे रास नहीं आया. रामनाथपुरम बड़ा मशहूर शहर था और करीब पचास हज़ार की आबादी थी लेकिन रामेश्वरम का सुकून और इत्मीनान कहीं नहीं था. घर बहुत याद आता था और घर लौटने का कोई मौका मै छोड़ता नहीं था.

स्वार्ट्स हाई स्कूल में दाखिले के बाद एक पंद्रह साला लड़के के तमाम शौक जो हो सकते थे, मेरे अन्दर जाग उठे थे. मेरे टीचर अन्ना दोराई सोलोमन बेहतरीन रहबर थे, गाईड उस नौजवान के लिए जिसके सामने जिन्दगी की बेशुमार मुमकीनात खुलने वाली थी. रामनाथपुरम के उस अरसा-ए-कायम में उनसे मेरा रिश्ता उस्ताद शागिर्द या गुरु शिष्य से भी आगे निकल गया. अन्ना दोराई कहा करते थे” जिंदगी में कामयाब होने और नतीजे पाने के लिए तीन चीजों पर काबू पाना बहुत ज़रूरी है, ख्वाहिश यकीन और उम्मीद. अन्ना दोराई जो बाद में रेवेरेंट हो गए, कहा करते थे” इससे पहले की मै चाहू कुछ हो जाए, उससे पहले मेरे अन्दर उसकी पूरी शिद्दत से ख्वाहिश हो और यकीन हो कि वो होगा.” मैं अपनी जिंदगी से अगर मिसाल दूँ तो मुझे बचपन से ही आसमान के इसरार और परिंदों की परवाज़ हमेशा हैरान करती थी, फेसिनेट करती थी. सम्नुदर में कुंजो और बगुलों को ऊँची उड़ाने लगाते देखता था तो उड़ने को जी चाहता था. मै एक सादा सा गाँव का लड़का तो था मगर मुझे यकीन था की एक दिन मै उन कुंजो की तरह बुलंद उड़ान लगाकर बुलंदी पर पहुचुंगा.

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और हकीकत ये है की रामेश्वरम से उड़ने वाला मै पहला लड़का था. स्वार्ट्स स्कूल में तालीम हासिल करते करते मेरे अन्दर खुद एतमादी बस चुकी थी और मुझे यकीन था मै ज़रूर कामयाबी हासिल करूँगा. मै तालीम आगे जारी रखूगा, उसमे कोई दूसरा ख्याल नहीं था. सन1950 में मै इंटर मीडिएट पढने के लिए सेंट जोसेफ कोलेज त्रिची में दाखिल हो गया. जब बी.एस.सी डिग्री करने के लिए मैंने सेंट जोसेफ कोलेज में एडमिशन लिया तो हायर एजुकेशन के माने सितने ही जानता था. ये नहीं जानता था कि हायर एजुकेशन के लिए कुछ और भी हो सकता है, ना ये जानता था कि साईंस पढके फ्यूचर के लिए और क्या हासिल हो सकता है. बी.एस.सी पास करने के बाद ही जान पाया। कि फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट नहीं था. अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए मुझे इंजीनियरिंग में जाना चाहिए था मगर पता नहीं क्यों कुछ लोगो का ऐसा ख्याल है कि साईंस आदमी को खुदा से मुल्कर कर देती है लेकिन मेरे लिए तो साईंस एतमाद, विश्वास और रूहानी तस्कीन की वजह रही है .

किसी तरह मै एम आई टी यानी मद्रास इंजीयरिंग और टेक्नोलोजी के उमीद्वारो की लिस्ट में तो आ गया लेकिन उसका दाखिला बहुत महंगा था कम से कम एक हज़ार रुपयों की ज़रुरत थी और मेरे अब्बा के पास इतने पैसे नहीं थे. उस वक्त मेरी अक्का, मेरी आपा जोहरा ने अपने सोने के कड़े और चेन बेचकर मेरी फीस का इतेजाम किया. उसकी उम्मीद और यकीन देखकर मै पसीज गया. एमाईटी में सबसे ज्यादा मज़ा आया. वहाँ दो हवाई जहाज रखे देखकर, जो उड़ान से बरी कर दिए गए थे एक अजीब सा खिंचाव महसूस होता था. और जब बाकि लड़के हॉस्टल चले जाते थे, मै घंटा डेढ़ घंटा उनके पास बैठा रहता था. फर्स्ट इयर मुक्कमल होने के बाद जब मुझे अपने ज्यादा खशूशी मज़मून चुनने थे तो मैंने फ़ौरन एरोनोटिकल इंजीयरिंग का चुनाव किया. एम आई टी की तालीम के दौरान मुझे तीन टीचर्स ने बहुत मुद्दसर किया. प्रोफ. के.ए.वी. मेंडेलीन, प्रोफ. स्पोंडर, प्रोफ. नरसिम्हाराव. प्रोफ. स्पोंडर टेक्नीकल एरो डायनामिक सिखाते थे.

मेकेनिकल इंजीयरिंग में दाखिले से पहले ही मैंने उनसे सलाह ली थी. उन्होंने मुझे समझाया था कि” मुस्तकबिल का फैसला करने से पहले मुस्तकबिल की मुमकिनियत के बारे में नहीं सोचना चाहिए बल्कि सोचना चाहिए एक अच्छी बुनियाद के लिए और अपने रुझान और रिश्तियात के बारे में कि उनमे कितनी शिद्दत है, एप्टीटयुड और इन्सिपिरेशन में कितनी इन्टेन्सिटी है. मै खुद भी होने वाले इंजीनियर स्टूडेंट्स से ये कहना चाहता हूँ कि जब वे अपने स्पेशिलाइजेशन का चुनाव करे तो देखना होगा कि उनमे कितना शौक है कितना उत्साह और लगन है उस शौक में जाने के लिए. प्रोफ. के.ए. वी. मेंडेलींन ने मुझे एरो स्ट्रक्चर डिजाइन सिखाया और उसका तंजिया भी. विश्लेषण और एनालिसिस भी. वे बडे खुशदिल और दोस्त टीचर थे और हर साल कोई ना कोई नया तरीका, नया नजरिया लेकर आते थे. प्रोफ. नरसिंहाराव मेथमेटीशियन थे, वे एरो डायनामिक्स की थ्योरी सिखाया करते थे. उनकी क्लास में शामिल होकर मुझे मेथमेटिक्स फिजिक्स बाकी तमाम सब्जेक्ट से ज्यादा अच्छा लगने लगा.

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Wings Of Fire by Abdul Kalam- एम् आई टी से मै बेंगलोर के हिन्दुस्तान एरोनोटीकल लिमिटेड में बतौर ट्रेनी दाखिल हो गया. एचएएल से जब मै एरोनोटीकल इंजीयरिंग में ग्रेजुएट बनकर निकला तो जिंदगी ने दो मौके मेरे सामने खड़े कर दिए. दोनों मेरी परवाज़ के देरीना ख्वाब को पूरा कर सकते थे. एक मौका था एयरफोर्स का दूसरा मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स में डायरेक्टरेट ऑफ़ टेक्नीकल डेवलपमेंट और प्रोडक्शन का.

मैंने दोनों में अर्जी भेज दी और बावक्त दोनों से इंटरव्यू का बुलावा आ गया. एयरफोर्स के लिए मुझे देहरादून बुलाया गया था और डिफेन्स के लिए दिल्ली. मेरे दोनों मुकाम दो हज़ार किलोमीटर के फासले पर थे और ये पहला मौका था मेरा अपने वसील और विराट वतन को देखने का. खिड़की पर बैठा हआ मै इस देश की सरजमीं को पावों के नीचे से बहता हुआ देख कर हैरान था कि उत्तर की सफ़र करते हुए एक ही मुल्क का लैंडस्केप कैसे बदल जाता है. मै एक हफ्ता दिल्ली में ठहरा. डिफेन्स मिनिस्ट्री का इंटरव्यू दिया. इंटरव्यू अच्छा हुआ था वहां से मै देहरादून गया एयरफोर्स सिलेक्शन बोर्ड के इंटरव्यू के लिए. पच्चीस उमीद्वारो में मै नवें नंबर पर आया. मेरा दिल बैठ गया.

बहुत मायूस हुआ और कई दिन तक अफ़सोस रहा कि एयरफोर्स में जाने का मौका मेरे हाथ से निकल गया. मै ऋषिकेश चला गया, दिल पे ये बोझ लेकर कि आने वाले दिन बड़े सख्त होंगे. गंगा में स्नान किया और फिर चलता हुआ पास की पहाड़ी में शिवानन्द आश्रम तक पहुच गया. स्वामी शिवानन्द से भेंट हुई. देखने में बिलकुल गौतम बुद्ध लगते थे. सफ़ेद दूधियाँ धोती और पावों में लकड़ी की खड़ाऊ. उनकी बच्चो सी मासूम मुस्कान और सादादिल देखकर बहुत प्रभावित हुआ. मैंने बताया उन्हें कि कैसे इंडियन एयरफोर्स में भारती होने से रह गया और मेरी कितनी शदीद ख्वाहिश थी आसमानों में उड़ने की, परवाज़ करने की. वो मुस्कुरा दिए और बोले” ख्वाहिश अगर दिलो जान से निकली हो तो वो पवित्र होती है और उसमे अगर शिद्दत हो तो उसमे कमाल की एक इलेक्ट्रो मेग्नेटिक एनर्जी होती है. एक बर्की मकनती सी ताकत होती है.

दिमाग जब सोता है तो वो एनर्जी रात की ख़ामोशी में बाहर निकल जाती है और सुबह कायनात, ब्रह्माण्ड सितारों की गति रफ़्तार को अपने साथ समेट कर दिमाग में वापस लौट आती है. इसलिए जो सोचा है उसकी सृष्टि अवश्य है. वो बख्ति होगा तुम विश्वास करो इस अजली बंधन पर, इस वचन पर कि सूरज फिर लौटेगा. बहार फिर से आएगी. मै दिल्ली लौट आया.

Wings of Fire by Abdul Kalam- डिफेन्स में अपने इंटरव्यू का नतीजा दरयाफ्त किया.  जवाब में मुझे अपोइंटमेंट लैटर थमा दिया गया. और अगले दिन से सीनियर साइंटिफिक अस्सिस्टेंट मुकर्रर कर दिया गया ढाई सौ रूपये के महीना तनख्वाह पर. तीन साल गुजर गए. उन्ही दिनों बंगलोर में एरोनौटिकल डेवलपमेंट एश्टेबिलिश्मेंटADE का नया महकमा खुला और मुझे वहां पोस्ट कर दिया गया. बेंगलोर कानपुर से बिलकुल मुक्तलिफ़ शहर था. मै अपने डायरेक्टरेट का पहला साल वहाँ गुज़ार चूका था. दरअसल हमारे देश में अजीब सा तरीका है, अजीब सा ढंग है अपने लोगो को हद दर्जा तक निचोड़ लेने का, जो हमारे लोगो को इन्तेहापसंद बना देता है. शायद इसलिए कि सदियों से देश ने गैर मुल्को की तहजीबो के जख्म खाए है और उन्हें अपने दामन में जगह दी है. अलग अलग हुक्मरानों से वफ़ा करते करते हम अपनी हैसियत, अपनी इफ्तेदा खो बैठे है. बल्कि हमने एक और ही खूबी पैदा कर ली है कि एक ही वक्त में रहमदिल भी है और बेरहम भी, हसाज़ भी है और बेहिस भी. जितने गहरे है उतने ही सतही. ऊपर से देखो तो हम बड़े खुशरंग और खूबरू नज़र आते है लेकिन कोई गौर से देखे तो हम अपने हुक्मरानों की बेढब नक़ल से ज्यादा और कुछ नहीं है.

मैंने कानपुर में कल्ले में दबाये हुए पान वाले नवाब वाजिद अली शाह के नकलची बहुत देखे और बेंगलोर में फिरंगियों के अंदाज़ में कुत्ते की ज़ंजीर थामे टहलते हुए साहिबो की कमी नहीं थी. बेंगलोर में रहते हुए मै रामेश्वरम के गहरे सुकून और शांत वातावरण के लिए तरसता था. पहले साल तो ADE में कोई ज्यादा काम नहीं था. एक प्रोजेक्ट टीम बनायी थी कि तीन सालो में एक स्वदेशी होवर क्राफ्ट तैयार करे और जो वक्त से पहले तैयार हो गया. उसका नाम रखा गया शिव की सवारी के आधार पर. उसका डिजाइन हमारी उम्मीद से ज्यादा अच्छा था लेकिन मै सख्त मायूस हुआ जब आपसी कंट्रोवर्सी के बिना पर सारा प्रोजेक्ट बला-ए-ताक पर रख दिया गया, बंद कर दिया गया. प्रोफ. एम्. जी. के. मेनन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च के डायरेक्टर एक दिन अचानक हमारी जांच पड़ताल को आ पहुंचे. नंदी का जिक्र निकला, मुझसे पूछताछ करते हुए उन्होंने ख्वाहिश ज़ाहिर की एक दस मिनट की उड़ान के लिए. उसके हफ्ता बाद की बात थी मुझे इन्स्कोसपर से बुलावा आ गया.

मै मुंबई चला गया इंटरव्यू देने. मेरा इंटरव्यू लेने वालो में विक्रम साराभाई, एम्.जी.के मेनन के अलावा मिस्टर सराफ थे जो उस वक्त एटॉमिक एनर्जी कमीशन के डेपुटी सेक्रेटरी के ओहदे पर थे. डाक्टर साराभाई की गरमजोशी ने पहली ही मुलाकत में मेरा दिल मोह लिया. अगले ही दिन मुझे खबर मिली कि मै चुन लिया गया. मुझे इन्कोस्पर में राकेट इंजीनियर की हैसियत से शामिल कर लिया गया था. सन 1962 में देरेना हिस्से में कहीं इन्कोस्पर ने थुम्बा में इक्वेटोरियल राकेट लांच स्टेशन बनाने का फैसला किया. थुम्बा केरल में त्रिवेंद्रम से परे दूर दराज़ के एक उंघते से गाँव का नाम है. हिन्दुस्तान में ये मॉडर्न राकेट बेस्ड रिसर्च की एक दबी सी इफ्तेदा थी, एक हलकी सी शुरुवात थी. उसके फ़ौरन बाद ही मुझे छह महीने के लिए अमेरिका भेज दिया गया. नासा में राकेट लौन्चिंग की ट्रेनिंग के लिए. जाने से पहले मै थोडा सा वक्त निकाल कर गया. मेरे अब्बा मेरी इस कामयाबी के लिए बहुत खुश हुए और मुझे उसी मस्जिद में ले जाकर शुक्राने की नमाज़ अदा की.

नासा लेंगले रिसर्च सेंटर वर्जीनिया में मैंने अपने काम की शुरुवात की. बाद में गोडार्ड फ्लाई स्पेस सेंटर मेरीलैंड चला गया. मै अपना इम्प्रेशन अमेरिकन के बारे में बेंजामिन फ्रेंक्लिन के इस जुमले से बयान कर सकता हूँ “जिन बातों से तकलीफ होती है उनसे तालीम भी मिलती है” हिन्दुस्तानी तंजीमो में यहाँ की ओर्गानैज़ेशन में एक बड़ी मुश्किल है. जो ऊपर है वो बड़े मगरूर है. अपने से छोटो की, जूनियर और सबोर्डिनेट की राय लेना अपनी हदके समझते है. कोई भी शख्स अपनी खूबी दिखा नहीं सकता अगर आप उसे मलामत ही करते रहे. उसूल और पाबन्दी, पाबन्दी और सख्ती, सख्ती और जुल्म के बीच की लाइन बड़ी महीन है, बारीक है. उसकी पहचान बहुत ज़रूरी है. मै जैसे ही नासा से लौटा फ़ौरन बाद ही हिन्दुस्तान का पहला राकेट लांच वाकया हुआ. 21नवम्बर 1963, वो साउन्डिंग राकेट था, नाम अपाचे नाइकी. नाइकी अपाचे की कामयाबी के बाद प्रोफ साराभाई ने अपनी आरजू, अपने ख्वाब का इज़हार किया. एक इंडियन सेटेलाईट लांच व्हीकल ISLV का सपना. हिन्दुस्तानी राकेट का सपना 20वी सदी का ख्वाब भी कहा जा सकता है जो टीपू सुलतान ने देखा था. टीपू सुलतान की फौज में 27 ब्रिगेड थे जो कुशहूंस कहलाते थे और हर एक ब्रिगेड में एक दस्ता था राकेटमेन का जो साथ रहता था और जक्स कहलाता था. जब टीपू सुलतान मारा गया तो अंग्रेजो ने 700 राकेट और 900 राकेट के सब- सिस्टम बरामद किये.

1799 में तिरुनेलवेली की जंग के बाद वो रॉकेट्स विलियम कांगेरी ने इंग्लैंड भिजवा दिए जांच पड़ताल के लिए. उसकी तकनीक समझने के लिए जिसे आज की साइंस जुबांन में हम रिवर्स इंजीयरिंग कहते है. टीपू सुलतान की मौत के बाद उस ख्वाब की भी मौत हो गयी कम से कम डेढ़ सौ साल के लिए. पंडित जवाहरलाल नेहरु की बदौलत वो रोकेटरी का ख्याल फिर एक बार हिन्दुस्तान में जिंदा हुआ. प्रोफ. साराभाई ने उस ख्वाब को हकीकत बनाने की जिम्मेदारी अपने सर ली. बहुत से तंगनज़र लोगो को एतराज़ था इस बात से कि इस मुल्क में जहाँ कौम को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती वहां इस स्पेस उड़ानों को, इन खयालाई तहरीको को क्यों तरजीह दी जा रही है. लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु और साराभाई के नज़रिए में किसी किस्म का मुबारता नहीं था. उनके नज़रिए बिलकुल साफ़ थे कि अगर दुनिया के मुल्को में, दुनिया के मसलो में हिस्सा लेना है, शिरकत करनी है हिन्दुस्तान को कोई हैसियत हासिल करनी है तो साइंस और टेक्नोलोजी की तरक्की, खुद मुख्तारी और सेल्फ रिलाएंस ज़रूरी है और उनका मकसद ताकत का मुजाहिरा बिलकुल नहीं था.

सहज पके सो मीठा होए, थुम्बा में दो राकेट सहज पके और कामयाब हुए एक रोहिनी और दूसरा मेनिका. अगला साल लगा ही था जब प्रोफ. साराभाई ने मुझे दिल्ली बुला भेजा एक मीटिंग थी और मीटिंग में ग्रुप कैप्टेन वी. एस. नारायणन से मेरा तारुफ़ कराया गया जो एयर हेडक्वार्टर से थे. प्रोफ. साराभाई ने RATO तैयार करने का इरादा ज़ाहिर किया. राकेट असिस्टेंट टेक ऑफ जो एक मिलिट्री एयरक्राफ्ट की मदद से उड़ाया जा सके बड़ी छोटी सी जगह में. शाम तक ये खबर भी आम हो गयी कि हिन्दुस्तान एक खुद शाफ़्ट मिलिट्री एयरक्राफ्ट तैयार कर रहा है और मै उस प्रोजेक्ट का मुख्तार हूँ, जिम्मेदार हूँ. मै कई तरह के ज़ज्बात से भर गया. खुश भी था, शुक्रगुजार भी, खुशकिस्मत भी और एक एहसास हुआ तकनील का, फुलफिलमेंट का. 19वी सदी के एक शायर की ये शेर बहुत याद आये”हर दिन के लिए हमेशा तैयार रहो, हर दिन को एक तरही में लो जब ओखली में हो तो बर्दाश्त करो, जब दश्ता हो तो वार करो.

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Wings Of Fire by Abdul Kalam- RATO पे काम करते हुए दो अहम् वाक्यात हुए. पहला तो ये था कि अपने देश में पहली बार स्पेस रिसर्च का दस साला प्रोग्राम तैयार हआ जिसके ओथेर थे प्रोफ. साराभाई. मेरे लिए वो एक रूमानी मेनिफेस्टो था जैसे स्पेस से इश्क करने वाले किसी शायर की रूमानी नज़्म हो, जैसे कोई अपने देश के आसमान से इश्क करने लगा हो. और दूसरा वाकया, मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स में मिसाइल पैनल का तैयार होना. नारायणन और मै हम दोनों उस पैनल के मेम्बर थे. उस वकत तक भविष्य की आने वाली SLV सेटेलाईट लांच वेहिकल का नाक-नक्शा भी तैयार हो चूका था. प्रोफ. साराभाई अपने देरीना ख्वाब की ताबीर देने के लिए कुछ और साथियों का चनाव कर चुके थे. मै खुद को खुशकिस्मत समझता हूँ,मुझे उस प्रोजेक्ट का लीडर चुना गया. उस पर प्रोफ. साराभाई ने मुझे एक और जिम्मेदारी भी सौंपी कि लांच की चौथी स्टेज़ मै ही डिसाइड करू. ये मामुल था, मेरा अल्क था कि हर मिसाइल पैनल की मीटिंग के बाद मै जाकर प्रोफ. साराभाई को पूरी तफसील, पूरी रिपोर्ट देता था.

दिल्ली में ऐसे ही एक मीटिंग के बाद 23 दिसंबर 1971 को मै त्रिवेंद्रम लौट रहा था और उस दिन थुम्बा में प्रोफ. साराभाई SLV का मुआयना करने गए हुए थे. दिल्ली एअरपोर्ट के लौंज़ से मैंने उन्हें फोन किया, पैनल मीटिंग की तफसील बताई. प्रोफ. साराभाई ने कहा कि मै त्रिवेंद्रम एअरपोर्ट पर उनका इंतज़ार करूँ. मै जब त्रिवेंद्रम पहुंचा तो फिज़ा में एक मातम छाया हुआ था, मुझे खबर दी गयी कि प्रोफ. साराभाई नहीं रहे. चंद घंटो पहले दिल का दौरा पड़ने से उनका इन्तेकाल हो गया. मै थर्रा कर रह गया. चंद घंटे पहले ही तो मैंने उनसे बात की थी. मेरे लिए वो बहुत बड़ा सदमा था. प्रोफ. साराभाई मेरी नज़र में इंडियन साइंस के राष्ट्रपिता थे, जैसे महात्मा गाँधी है. उन्होंने अपनी टीम से रहनुमा पैदा किये और खुद अमल से उनके लिए मिसाल साबित हुए.

कुछ अरसा प्रोफ. एम्.जी.के. मेनन ने स्पेस रिसर्च का काम संभाला. बिल-आखिर प्रोफ. सतीश धवन को इंडियन स्पेस रिसर्च ओर्गेनाइजेशन ISRO की जिम्मेदारी सौंप दी गयी. थुम्बा का पूरा काम्प्लेक्स बड़े पैमाने पर एक स्पेस सेंटर बना दिया गया और विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर VSSC का नाम दिया गया. जिसने वो सेंटर कायम किया था उसी के नाम से उस जगह की श्रधांजलि पेश की गयी. मशहूर मेटीरियोलिजिस्ट डॉ. ब्रह्म प्रकाश VSSC के पहले डायरेक्टर मुकरर्र हुए. कोई भी शख्स अपनी जिम्मेदारी में तभी कामयाब हो सकता है अगर वो बा-रसूख हो, मोतबर हो और अपने फैसलों के लिए उसे सही हद तक आजादी हो शायद निजी जिंदगी में भी तस्लील का यही एक रास्ता है.

आजादी और जिम्मेवारी एक साथ हो तभी वो तस्कीन और ख़ुशी का बायिस हो सकती है और ज़ाती आज़ादी हासिल करने के लिए मै दो रास्ते तजवीर कर सकता था जो मैंने इख्तियार किये. पहला तो ये कि अपनी तालीम और तर्बीरियत को बढावा दो. इल्म, नॉलेज बड़ा करामाती हथियार है, बहुत काम आता है. इल्म जितना ज्यादा होगा उतनी ज्यादा आजादी के हक़दार होंगे. इल्म वो पूँजी है जो कोई छीन नहीं सकता, इनकी रहनुमाई तभी मुमकिन है अगर आपकी जानकारी मुक्कमल हो, अपटूडेट हो. कामयाब रहनुमा बनने के लिए ज़रूरी है कि दिन का काम जब ख़त्म हो आप पिछले काम का जायजा ले, अगले दिन के काम की तैयारी करे. दूसरा तरीका ये है कि अपने काम को अपना फ़न समझो, गर्व समझो और ज़रुरत भी है कि अपने अन्दर की शक्ति की सही जानकारी हो. जो करो उस पर यकीन रखो, ये जिस पर यकीन हो वही करो वर्ना दुसरो के ईमान का शिकार बनते रहोगे.

SLV प्रोजेक्ट के पहले तीन सालो में साईंस के बहुत से नए नए इसरार खुले पर अहिस्ता अहिस्ता साइंस और टेक्नोलोजी का फर्क समझ आने लगा | रिसर्च और डेवलपमेंट का फासला पता चलने लगा | किसी भी इजाद में गलतियां होना लाजिमी है लेकिन हर गलती कामयाबी की तरफ एक और कदम उठाती है | इस और सीड़ी बन जाती है | किसी भी तखलीक की तरह SLV की तखलीक भी कई दर्दनाक लम्हों से गुजरी | एक रोज़ जब मै और मेरे तमाम साथी अपने कामो में पूरी तरह डूबे हुए थे मेरे घर से एक मौत की इत्तला पहुची | मेरे दोस्त और मेरे हमदर्द मेरे बह्नोई जलालुद्दीन का इन्तेकाल हो गया था | कुछ देर के लिए तो मै सुन्न होक रह गया, मेरी आँखों में अँधेरा छा गया | थोड़ी देर बाद जब अपने चौगिरदे का एहसास हुआ, मैंने महसूस किया कि जैसे मेरी हस्ती का एक हिस्सा मर गया था | रात के रात बसों में सफ़र करता हुआ अगली सुबह मै रामेश्वरम पहुचा |

जोहरा को क्या तसल्ली देता और क्या सब्र देता अपनी भांजी महबूबा को जो रो रोकर हलकान हो रही थी, मेरी

आँखों के सोते पहले ही सूख चुके थे | थुम्बा लौटकर बहुत दिनों तक सारा काम काज, सारी मसरूफियत बेमानी लगने लगी | बहुत दिनों तक बहुत मलाल लगा, सब बेमानी लगता था | प्रो. धवन देर देर तक हौसला देते थे, कहते थे,”SLV पर जैसे जैसे काम आगे बढेगा, मुझे सब्र महसूस होगा और ये मायूसी कम होते होते गुज़र जायेगी “ 1976 में मेरे अब्बा जेनुलाब्दीन 102 साल की उम्र में वही रामेश्वरम में इन्तेकाल फरमा गए | 15 पोते पोतियाँ छोड़ कर गए थे पीछे और एक पडपोता | दुनियावी तौर पर वो सिर्फ एक और बुजुर्ग की मौत थी, कोई बड़ा मातम नहीं हुआ, झंडा नहीं उतारा गया, ना अखबारों में स्याह हाशिये दिए गए | ना सियासतदान थे वो ना विद्वान कोई, ना कोई बड़े सरमाया दार, एक सीधे सादे इंसान थे फ़रिश्ता शिफत और हर एक उस बात की वजह थे जो दानाई और पारसाई की राह दिखाती है | मै बहुत देर तक अपनी माँ के पास बैठा रहा चुपचाप और जब उठा थुम्बा लौटने के लिए तो उसने रुंधे गले से दुआए दी मुझे |

SLV 3 आपाचे रॉकेट जो फ्रांस से उडाई जाने वाली थी, अचानक कुछ मुश्किलों का शिकार हो गयी | मुझे फ़ौरन फ्रांस जाना पड़ा | मै रवाना होने ही वाला था कि मेरी माँ की मौत की खबर पहुची, एक के बाद एक पूरी तीन मौते हो गयी मेरे घर में, उस वक्त मुझे अपने काम में पूरे ध्यान की ज़रुरत थी।

सौर फीसदी लगन से काम करने की ख्वाहिश किसी और लगन की गुंजाईश नहीं छोडती | मुकल्माती और पूरी लगन से SLV 3 का ख्वाब 1979 के दरमियान में जाकर पूरा हुआ | हमने SLV3 की परवाज का दिन 10 अगस्त 1979 तय किया | 23 मीटर लम्बा चार स्टेजेस का ये राकेट 17 टन का वजन लेकर 7 बजकर 58 मिनट में बड़ी कजादाई से उड़ा और खला की तरफ रवाना हुआ |

पहली स्टेज हर तरह से पुख्ता निकली और बड़े आराम से राकेट दूसरी स्टेज में चला गया हम दम्खुद रह गए, सांस रुकी बैठी थी. हमारे बरसो का ख्वाब आसमान की तरफ सफ़र कर रहा था | अचानक हमारे ख्वाब में दरार आयी, हमारा सुकून टूटा, हमारी खमोशी टूटी | दूसरी स्टेज काबू से बाहर होने लगी थी | तीन सौ सत्रह सेकंड बाद परवाज टूट गयी मेरी मेहनत और उम्मीद चौथी स्टेज को साथ लेकर तमाम मलबा हरिकोटा से 560 किलोमीटर दूर समुन्दर में जाकर गिरा | इस हादसे से हम सबको सख्त सदमा पहुचा, मै गमो गुस्से से भर गया | निचुड़ गया बिलकुल जिस्मानी तौर पर भी और जेहानी तौर पर भी मै सीधा अपने कमरे में गया और बिस्तर पर धंस गया |

मैंने अपने कंधे पर एक दिलासे का हाथ महसूस किया तो आँख खोली | दुपहर ढल चुकी थी शाम करीब थी | डा. ब्रह्म प्रकाश मेरे सिरहाने बैठे थे | उनकी इस हमदर्दी ने छु लिया मुझे, मै उदास था, मायूस था लेकिन अकेला नहीं था | हर शख्स तकनीकी जमातफरीकी और बहस मुबाहिसे के बाद मुतमईन हो चूका था लेकिन मुझे इत्मीनान ना आया | मै मुसलसल और बैचेन रहा, मै बेसाख्ता खड़ा हो गया और एतराफ किया प्रो. धवन के सामने “सर मेरे साथियो को नाकामयाबी की वजह दरयाफ्त हो जाने की वजह से इत्मीनान हो गया है  लेकिन मै उसे काफी नहीं समझता, इस मिशन में डायरेक्टरेट की हैसियत से इस गलती को भी मै अपनी जिम्मेवारी समझता हूँ | SLV 3 की नाकामयाबी की जिम्मेदारी मेरी है ”

Wings of Fire by Abdul Kalam- साईंस का काम कमाल दर्जा उत्साह भी देता है, ख़ुशी भी और उतनी गहरी मायूसी भी | इस तरह के वाक्यात सोच सोच के मै दिल को ढाढस देता रहा | ये ख्याल के इंसान चाँद पर उतर सकता है, ये सबसे पहले एक रुसी साईंटिस्ट ने सोचा था | उसे हकीकत बनाने में 40 साल गुज़र गए जब अमेरिका ने उसे पूरा किया | प्रोफ. चन्द्रशेखर ने चंद्रशेखर लिमिट का आविष्कार किया था 1930 में जब केम्ब्रिज में पढ़ रहे थे लेकिन पचास साल बाद उन्हें उसी डिस्कवरी पर नोबेल प्राईज़ मिला | अपनी सेटेल लांच वीहिकल से आदमी को चाँद पर उतारने से पहले कितनी सारी नाकामियों से गुज़रे होंगे | पहाड़ की चोटी पर उतरने से पहाड पर चढने का तजर्बा नहीं मिलता | जिंदगी पहाड की चडानो पर मिलत हा चोटी पर नहीं | चढानों पर ही तजुर्बे मिलते है और जिंदगी मंजती है और टेक्नोलोजी तरक्की करती है | चोटी पर पहुचने की कोशिश में ही चढानों का इल्म हासिल होता है | मै एक एक कदम चलता रहा, चढता रहा चोटी की तरफ |

SLV 3 की उड़ान से 30 घंटा पहले 17 जुलाई 1980 के दिन अखबारों की सुर्खिया तरह तरह की राय और अंदाजो से भरी हुई थी | ज़्यादातर रिपोर्टर ने पहली SLV की याद दिलाई थी कि किस तरह रॉकेट फेल हो गया और उसका मलबा समुन्द्र में जा गिरा था | कुछ लोगो ने तो उसे देश की दूसरी खामियों का जिक्र करते हुए भी उसे SLV 3 से जोड़ दिया था | मै जानता था कि अगले दिन का नतीजा हमारे फ्यूचर के स्पेस प्रोग्राम का फैसला करने वाला है | मुख़्तसर ये कि सारे कौम की नज़रे हम पर गड़ी हुई थी | 18 जुलाई 1980 सुबह 8 बजकर तीन मिनट पर हिन्दुस्तान का पहला सेटेलाईट लांच व्हीकल उड़ा | मैने रोहिणी सेटेलाईट का तमाम डेटा कम्प्यूटर पर जांचा, अगले दो मिनट के अन्दर अन्दर रोहिणी अन्तरिक्ष में था | उस तमाम शोरगुल के बीच मैंने अपनी जिंदगी के सबसे अहम् अलफ़ाज़ अदा किये “मै मिशन डायरेक्टर बोल रहा हूँ, एक ज़रूरी खबर सुनने को तैयार रहो, चौथी स्टेज की कामयाबी के साथ रोहिणी सेटेलाईट को लेकर अन्तरिक्ष में दाखिल कर रही है”

मै ब्लाक से बाहर आया तो मेरे साथियों ने मुझे कंधो पर उठा लिया और नारे लगाते हुए जुलूस निकला | सारी कौम में एक जोश की लहर दौड़ गयी. हिन्दस्तान उस चंद कौमो में शामिल हो गया था जिनके पास सेटेलाईट लांच की। काबिलियत थी, हमारे कौम का एक बड़ा ख्वाब पूरा हुआ था, हमारे इतिहास का एक नया वाक्फ खुला, एक नया चेप्टर | प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने मुबारकबाद का तार भेजा और सबसे ज्यादा हिंस्दुस्तान के सायिन्स्दान खुश थे कि ये पूरी कोशिश स्वदेशी थी, हमारी अपनी थी। मै कुछ मिले जुले जज़्बात से गुज़र रहा था, मै खुश था कि पिछली दो दहायियो से जिस कोशिश में था बिल आखिर उसमें कामयाब हुआ लेकिन उदास था | जिन लोगो की बदौलत मै यहाँ पंहुचा था वो लोग मेरे साथ नहीं थे | मेरे अब्बा, मेरे बहोई जलालुदीन और प्रोफ. साराभाई |

SLV 3 की कामयाबी के महीने भर के अन्दर ही प्रोफ. धवन का फोन आया एक दिन और दिल्ली बुलाया प्रधान मंत्री से मिलने के लिए | मेरी एक छोटी सी उलझन थी कपड़ो को लेकर | हमेशा से ही बड़े आमियाना से कपडे पहनता हूँ और पांवो में चप्पल या स्लीपर्स कह लो | प्रधान मंत्री को मिलने जैसा वो लिबास नहीं था मेरे लिए तो नहीं, उनके एहतराम के लिए | सुना तो प्रोफ. धवन बोले ‘कपड़ो की फ़िक्र मत करो, तुमने जो शानदार कामयाबी पहन रखी है वो काफी है ”

रिपब्लिक डे 1981 मेरे लिए एक बड़ी खुशखबरी लेकर आया कि मुझे पद्म भूषन से नवाज़ा गया है | मैंने अपने कमरे को बिस्मिल्लाह खान की शहनाई से भर लिया | शहनाई की गूंज मुझे कहीं और ही ले गयी, मै रामेश्वरम में पहुचं गया | माँ के गले लगा, अब्बा ने मेरे बालो को उँगलियों से सहलाया और मेरा दोस्त मेरा रफीक जलालुदींन मस्जिद में मेरे इनाम का एलान कर रहा था | मेरी बहन जोहरा ने मीठा बनाया घर में | बक्शी लक्ष्मण शास्त्री ने मेरे माथे पर तिलक लगाया और फादर सोलोमन ने मेरे हाथ में सलीब लेकर दुआ पड़ी और प्रोफ. साराभाई को देखा | उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी, फख्र था जो पौधा वो लगाकर गए थे अब पूरा पेड़ बन चूका था जिसके फल हिन्दुस्तान की अवाम तक पहुँच रहे थे |

पहली जून 1982 को मैंने डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेबोरटरी DRDL की जिम्मेदारी संभाल ली | उस वक्त के डिफेन्स मिनिस्टर श्री आर वेंकटरमण ने जब मशविरा दिया कि बजाय दरजा ब दरजा मिसाईल तैयार करने के हमें मुक्कमल अपनी मिसाईल तैयार करने का प्रोग्राम । बनाना चाहिए तो हमें अपने कानो पर यकीन नहीं आया और देखते ही देखते वो प्रोजेक्ट बन जिसके नतीजे आईंदा बहुत दूर तक पहुचे | हर प्रोजेक्ट का नाम हिन्दुस्तान की खुद मुख्तारी, सेल्फ रिलायंस का सुबूत था |

सरफेस टू सरफेस मिसाईल का नाम पृथ्वी रखा गया, टेक्टिकल कोर व्हीकल को त्रिशूल का नाम दिया गया, सरफेस तो एयर डिफेन्स सिस्टम आकाश कहलाया | एंटी टैंक मिसाईल के प्रोजेक्ट को नाग के नाम से पुकारा गया और मेरे देरीना ख्वाब रेक्स को यानि रिएक्स्पेरिमेंट लांच व्हीकल को मैंने अग्नि का नाम दिया |

Wings Of Fire by Abdul Kalam- मिसाईल टेक्नोलोजी का हुनर दुनिया की कुछ चुनी हुई कौमो के पास ही था, वो बड़े ताज्जुब से हमारी तरफ देख रहे थे कि हम क्या करने जा रहे है और कैसे करेंगे | हम एक मीटिंग में बैठे हुए अपने मकसद को पूरा करने के लिए 1984 की निशानदेही कर रहे थे जब डा. ब्रह्म प्रकाश की मौत की खबर आई | मेरे लिए तो वो एक और सदमा था | पहली SLV की नाकामयाबी के वक्त जिस तरह उन्होंने ढाढस दी थ मुझे, वो याद करके मै और ज्यादा ग़मगीन हो गया | प्रोफ. साराभाई अगर VSSC के निर्माता थे, बनाने वाले थे तो प्रोफ. ब्रह्म प्रकाश उसके आमिल थे, एक्जिक्युटर थे | उनकी विनम्रता ने मुझे बड़ी हद तक नम्र कर दिया और मैने अपनी तुन्जमिजाजी पर काफी हद तक काबू कर लिया | उनकी हलीमी सिर्फ अपनी खूबियों तक ही महदूद नहीं थी बल्कि अपने से छोटो को इज्ज़त देना भी उनकी आदत में शामिल था | उनके बर्ताव और सुलूक में बात नज़र आ जाती थी कि कोई भी शख्स खामियों से खाली नहीं है | यहाँ तक कि अफसर भी, लीडर भी, रहनुमा भी, | वो बहुत बड़े दानेशर थे, एक कमजोर शरीर के अन्दर उनमे बच्चों सी मासूमियत थी | मुझे हमेशा वो साईंसदानो में संत नज़र आते थे |

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पृथ्वी का काम अपनी तकमील को पहुँच रहा था जब हम 1988 में दाखिल हुए | 25 फरवरी 1988 को सुबह| बजकर 23 मिनट पर पृथ्वी की पहली परवाज वाकिब हुई.

Wings Of Fire by Abdul Kalam- हमारे मुल्क में वो एक ऐतिहासिक मौका था | पृथ्वी सिर्फ एक सरफेस टू सरफेस मिसाईल ही नहीं बल्कि आईंदा आने वाली तमाम किस्म की मिसाईल का बुनियादी नक्शा भी था, फ्यूचर का मोड्यूल था वो | पृथ्वी ने हमारे आस पड़ोस के मुल्को को दहला दिया मगरबी यानी वेस्टर्न मुल्को को पहले तो हैरत हुई फिर गुस्से का इज़हार किया और पाबन्दी लगा दी इंडिया के लिए कि वो ऐसी कोई चीज़ बाहर के मुल्को से ना खरीद सके जो उनके मिसाईल प्रोग्राम में इस्तेमाल हो सकती हो या काम आ सकती हो | मिसाईल की ईजाद ने, हिन्दुस्तान की खुद मुख्तारी ने दुनिया के तमाम तरक्की याफ्ता मुल्को को परेशान कर दिया. अग्नि की टीम में 580 से ज्यादा साईसदान शामिल थे | अग्नि की परवाज 20 अप्रेल 1989 तय पायी गई।

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