Brain Maker Book Summary in Hindi

Brain Maker

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ये सबक आपको क्यूँ पढ़ना चाहिए?

आप जानेंगे कि पेट खराब होने से कैसे आपको बहुत सी बीमारियाँ हो सकती हैं और कैसे आप इनसे बच सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन्सान के दिल तक का रास्ता उसके पेट से हो कर जाता है। सेहतमंद रहने और बीमारियों से लड़ने का रास्ता भी वहीं से होकर जाता है।

एल्ज़ीमर्स , औटिस्म (Alzheimer’s and Autism), तनाव और मोटापे जैसी बीमारियों को हमारे इन्टेस्टाइन में रहने वाला एक छोटा सा बैक्टीरिया बड़े ही आसानी से ठीक कर सकता है।

हमारा दिमाग उतना ही स्वस्थ है जितना हमारा पेट। माइक्रोबायोम हमारे शरीर को जरूरी विटामिन देता है और रोगों को दूर रखता है। ये उन बैक्टीरिया की तरह नहीं है जिनसे पेट में जलन या शरीर को नुकसान हो।

अच्छी खबर ये है कि हम इस बैक्टीरिया को अपने अंदर जगह देकर खुद को रोगों से लड़ने के काबिल बना सकते हैं। हम अपने खान पान में सुधार कर बीमारियों से आसानी से लड़ सकते हैं।

– प्लास्टिक नोटबुक के केमिकल से हम मोटे कैसे हो सकते हैं।

– माइक्रोबायोम कैसे औटिस्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर (Autism Spectrum Disorder) को ठीक कर सकता है।

– कैसे एक स्वादिष्ट करी हमारे दिमाग को बढ़ने में मदद कर सकती

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इन्टेस्टाइन के माइक्रोब्स हमारे मोटापे पर असर डालते हैं।

हमारे आंत यानि इन्टेस्टाइन मे अरबों माइक्रोब्स रहते हैं। ये सुनकर शायद आपको आश्चर्य हो, पर इनके होने से हम सेहतमंद रहते हैं । हमारे इन्टेस्टाइन के ही बैक्टीरिया हमें मोटा या पतला बनाते हैं। इन्टेस्टाइन में रहने वाले ज्यादातर माइक्रोब्स के नाम हैं- फरमिक्यूट्स और बैक्टिरीओडीट्स (Fermicutes and Bacteriodetes) | ये सारे माइक्रोब्स के लगभग 90% होते हैं।

वैज्ञानिकों को इनका सही रेशियो तो नहीं पता, पर वो ये बताते हैं कि जब आपको जलन या मोटापा हो तो फरमिक्यूट्स की संख्या बैक्टिरीओडीट्स से ज्यादा होती है।

फरमिक्यूट्स भोजन में से एनर्जी को निकालने में हमारी मदद करते हैं। इनसे हमें भोजन में से ज्यादा कैलोरी निकालने में मदद मिलती है। बैक्टिरीओडीट्स पौधों के फाइबर और स्टार्च को पचाने में हमारी मदद करते हैं।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने पश्चिमी देशों और अफ्रीका में रहने वाले लोगों पर शोध किया। उन्होंने माइक्रोबायोम और मोटापे के बीच संबंध को खोजा। उन्होंने पाया कि अफ्रीका में रहने वाले लोग, जो मोटे नहीं होते, के पास बैक्टिरीओडीट्स ज्यादा मात्रा में थे। जबकि पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों के पास फरमिक्यूट्स ज्यादा थे।

माइक्रोबायोम सिर्फ आपको मोटा या पतला ही नहीं रखता, ये आपके लीवर को भी सहारा देता है। खाने में बहुत सारे नुकसानदायक चीजें होती हैं। इन नुकसानदायक चीज़ों से छुटकारा लीवर दिलाता है। सेहतमंद इन्टेस्टाइन लीवर की मदद करती हैं, इसलिए इसे दूसरा लीवर भी कहा जाता है।

माइक्रोबायोम नुकसानदायक चीज़ों से हमें छुटकारा दिलाता है और इससे लीवर का बोझ थोड़ा हल्का हो जाता है, और वह स्वस्थ रहता है।

शरीर में होने वाली जलन हमें एक तरह से फायदा पहुँचाती है, लेकिन इससे नुकसान भी हो सकता है।

जब हमें कोई कीड़ा काटता है तो हमे खुजली और जलन होती है

और त्वचा लाल हो जाती है। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह सिर्फ सूजन और खुजली है पर ये उससे कहीं ज्यादा है। इस जलन के पीछे हमारा इम्यून सिस्टम है। इससे हमें सुरक्षा मिलती है और हमे चोट से लड़ने में मदद मिलती है। लेकिन अगर आपको बिना वजह जलन हो रही है तो ये नुकसानदायक हो सकता है।

अगर यह बिना वजह हो रही हो तो इससे बहुत सारी बीमारियाँ जैसे कैन्सर, डायबीटीस, अस्थमा, एरिथ्राइटिस और तरह तरह की स्क्लेरोसिस हो सकती हैं।

मगर आपको बिना वजह क्यों जलन होगी?

शरीर के कुछ जीन्स (genes) की वजह से ऐसा होता है। मगर ये जीन्स अपने आप ही “स्विच-आन” नहीं होते। अगर आप अच्छी नींद और अच्छा भोजन लें तो ये जीन्स स्विच-आन नहीं होते हैं। ऐसा करने से मदद करने वाले जीन्स स्विच-आन होते हैं।

खून में अगर शुगर की मात्रा बढ़ जाए तो उससे जलन भी बढ़ सकती है। शुगर की मात्रा बढ़ जाने पर सेल्स उसे पचा नहीं पाते और शुगर प्रोटीन या फैट के साथ जुड़ने लगता है। इसको ग्लाईकेशन (Glycation) कहते हैं । इसकी वजह से एडवान्स ग्लाईकेशन एन्ड प्रोडक्ट (Advance Glycation end Product) यानि AGP बनता है जिसकी वजह से जलन होती है।

तो हमने देखा कैसे जलन हमारे लिए फायदेमंद और बिना वजह जलन नुकसानदायक हो सकती है। पर क्या आप जानते हैं कि माइक्रोबायोम ऐसी जलन पैदा कर सकता है जिससे दिमाग को नुकसान हो सकता है?

अगर आपके माइक्रोबायोम ठीक नहीं है, तो आपका दिमाग भी खतरे में है।

अगर आपके माइक्रोबायोम शरीर की रक्षा करने में इम्यून सिस्टम की मदद नहीं कर पाते है तो आपका दिमाग भी खतरे में हो सकता है।

दिन के समय हमारी इन्टेस्टाइन भोजन में से पोषण को सोखती रहती है। इस समय इसे नुकसानदायक बैक्टीरिया से बचाने की जरूरत होती है। इन्टेस्टाइन के चारों ओर एक सुरक्षा की परत होती है जो न सिर्फ पोषण सोखती है बल्कि नुकसानदायक बैक्टीरिया से इन्टेस्टाइन को बचाती है।

अगर ये सुरक्षा की परत किसी वजह से कमजोर हो जाए तो नुकसानदायक बैक्टीरिया हमारे शरीर में घुस कर हमें नुकसान पहुंचाने लगते हैं । अगर सुरक्षा की परत लीक करने लगे तो इससे दूसरी खतरनाक बीमारियाँ हो सकती हैं।

रिसर्च में ये बात सामने आई कि इससे दिमाग पर बुरा असर पड़ता है। दिमाग को अब तक हम सुरक्षित समझते थे, पर इसकी वजह से हमारे दिमाग में भी नुकसानदायक बैक्टीरिया घुस सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो आपके दिमाग में जलन हो सकती है और आपके कुछ जान पाने से पहले ही काफी नुकसान हो जाएगा।

क्यों? क्योंकि दिमाग में हो रही जलन को हम बाकी जलन के जैसे महसूस नहीं कर सकते हैं। दिमाग के पास दर्द महसूस करने वाले न्युरॉन्स नहीं होते।

इसकी वजह से आपको एल्ज़ीमर्स डिसीस जैसे दूसरे न्युरोलॉजिकल बीमारियाँ जैसे पारकिन्सनस डिसीस हो सकती है। इन्टेस्टाइन के ठीक न होने की वजह से औटिस्म जैसी बीमारियाँ भी हो सकती हैं। आइए देखें कैसे।

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ऐसा माना जाता है कि इन्टेस्टाइन के बैक्टीरिया औटिस्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर (Autism Spectrum Disorder) पर बहुत असर डालते हैं।

औटिस्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर (Autism Spectrum Disorder) बहुत ही उलझी हुई बीमारी है। साइन्टिट्स को नहीं पता कि ये क्यों होती है और इसका ईलाज क्या है। बहुत सी थेरेपी इसके लक्षणों को कम करने का प्रयास करती हैं पर अब तक कोई भी ईलाज नहीं पाया गया है।

एएसडी ( औटिस्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर ) के लक्षण दिमाग के शुरूवाती विकास में देखने को मिलते हैं। जिन लोगों को एएसडी होता है वे आँखे नहीं मिलाते, अकेले रहते हैं, अपनी जरूरतों को ज़ाहिर नहीं कर पाते और बार बार एक ही काम करते हैं। ऐसा मानना है कि माइक्रोबायोम की समस्याओं से यह रोग होता है। अगर बचपन से ही दिमाग में जलन हो तो उससे भी एएसडी हो सकता है।

एक स्टडी में ये पाया गया कि एएसडी से पीड़ित लोगों के इन्टेस्टाइन में एक जैसे माइक्रोब्स पाए गए जिससे शरीर में जलन ज्यादा होने लगती है। जेसन (Jason) पर एएसडी का रिसर्च किया गया। उसको बचपन से ही बहुत से एन्टी बायोटिक्स दिए गए। जब वो दस साल का हुआ तो उसके इन्टेस्टाइन में लैक्टोबैसिलस नहीं पाया गया।

किस्मत से, माइक्रोबायोम पर खास ध्यान देकर हम एडीएस के लक्षणों को काबू कर सकते हैं। प्रोबायोटिक्स और विटामिन देकर हम माइक्रोबायोम की संख्या बढ़ा सकते हैं।

जेसन के लिए यह तरीका कारगर रहा। तीन हफ्तों में ही उसकी बेचैनी कम हो गई और उसने पहली बार अपने जूते के फीतों को बाँधा।

एक दूसरा ईलाज है जिसे फेकल माइक्रोबियल ट्रान्सप्लान्ट (Fecal Microbial Transplant) या स्टूल ट्रान्सप्लान्ट (Stool Transplant) कहा जाता है। इसमें एक सेहतमंद इन्टेस्टाइन में से माइक्रोब्स को निकाल कर रोगी के इन्टेस्टाइन में डाल दिया जाता है। इस ईलाज का परिणाम बहुत अच्छा रहा है।

अब आइए देखें कैसे हम अपने माइक्रोब्स की देखभाल कर सकते है।

वेस्टर्न खाने में ज्यादा फ्रक्टोस की वजह से पेट की बीमारियों मे बाढ़ सी गई है।

मीठी चीजों को ना कहना बहुत मुश्किल होता है। पर मीठी चीज़ों में फ्रक्टोस पाया जाता है जिसकी वजह से पेट की बीमारियाँ फैल रही हैं। फ्रक्टोस सोडा और कैंडी में पाया जाता है। पश्चिमी देशों में फ्रकटोस सबसे ज्यादा खाया जाता है।

फलों में थोड़ा ही फ्रक्टोस पाया जाता है पर सोडा में यह बहुत ज्यादा होता है । 350 mL सोडा में 140 कैलोरी फ्रक्टोस होता है जबकि एक सेब में सिर्फ 70 कैलोरी ही होता है।

फ्रक्टोस का ग्लाइसेमिक लेवल (Glycemic Level) सबसे कम होता है। मतलब इसका खून में मौजूद शुगर और इन्सुलिन पर तुरंत कोई असर नहीं होता । लेकिन ज्यादा फ्रक्टोस लेने से इन्सुलिन रेसिस्टेन्स हो सकता है। इससे डायबिटीज और हाइपरटेन्शन भी हो सकता है।

हमारा लीवर फ्रक्टोस को फैट में बदलता है। ज्यादा फ्रक्टोस लेने से लीवर पर असर पड़ता है।

इसके अलावा दूसरी नुकसानदायक चीज़ है – ग्लुटेन (Gluten)। ये अनाज में पाया जाता है। ये हर जगह है, जैसे पिज़्जा, पास्ता, आइसक्रीम यहाँ तक की कॉस्मेटिक्स में भी।

कुछ लोग सेलिएक डिसीस (Celiac Disease) से पीड़ित होते हैं। वे ग्लुटेन बर्दाश नहीं कर पाते। बहुत सारे लोगों का शरीर ग्लुटेन के प्रति अजीब हरकत दिखाता है। इसे ग्लुटेन सेन्सिटिविटि कहते हैं और इसका पता जल्दी नहीं चलता।

ग्लुटेन सेन्सिटिविटि से शरीर में जलन हो सकती है, जिसके बारे में हम जानते हैं। इससे बहुत सारी बीमारियाँ होती है। इससे छुटकारा पाने का एक ही तरीका है कि आप ग्लुटेन से परहेज करें।

बहुत सारे एन्टी बायोटिक्स और नुकसानदायक केमिकल्स का इस्तेमाल करके हम अपने सेहत से समझौता कर रहें हैं।

1928 में सकॉटलैंड के साइन्टिस एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसीलिन की खोज की जो कि बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी खोज थी। इससे एन्टी बायोटिक्स का युग शुरू हुआ।

एन्टी बायोटिक्स ने बहुत सी जानें बचाई हैं पर इसका ज्यादा इस्तेमाल कर के हम अपने सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं।

2010 में यूएस ने 258 मिलियन एन्टी बायोटिक्स के नाम लिखे, जबकि यूएस की आबादी 300 मिलियन थी। इनमें से कुछ एन्टी बायोटिक्स सर्दी जैसी मामूली बीमारी के लिए थे जिनका कोई काम नहीं था।

एन्टी बायोटिक्स का दूसरा गलत इस्तेमाल खेती में हो रहा है। किसान इसका इस्तेमाल जानवरों को बड़ा और मोटा बनाने के लिए होता हैं।

एन्टी बायोटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल नुकसानदायक है। बैक्टीरिया अपने आप को वातावरण के हिसाब से बहुत जल्दी ढ़ाल लेते हैं। ज्यादा एन्टी बायोटिक्स इस्तेमाल करने से जल्दी ही वो खुद को ऐसे ढाल लेंगे कि एन्टी बायोटिक्स का उनपर कोई असर नहीं होगा। इसका एक उदाहरण है – स्टेफाइलोक्कोकस औरियस (Staphyloccocus aureus) | इस पर आम एन्टी बायोटिक्स का कोई असर नहीं होता और इससे बहुत सी खतरनाक बीमारियाँ हो सकती हैं।

एन्टी बायोटिक्स हमारे इन्टेस्टाइन के फायदेमंद बैक्टीरिया को नुकसान पहुंचाता है जिससे नुकसानदायक बैक्टीरिया हमारे शरीर में घुस जाते हैं।

हमारे वातावरण के बहुत सारे केमिकल्स से भी हमें नुकसान हो रहा है। दुनिया भर में एक लाख केमिकल्स का नाम दिया गया जिसमें सिर्फ 200 ही सेफ हैं।

इनमें से एक केमिकल है – बिस्फेनॉल ए (Bisphenol A)। इसकी खोज 1891 में हुई थी और इसका उपयोग मेन्सट्रअल साइकल में किया जाता था। जानवरों को जल्दी बड़ा करने में भी इसका उपयोग किया जाता था। पर बाद में पता लगा कि इससे कैंसर होता है और इसको बैन कर दिया गया।

1950 से इस केमिकल का इस्तेमाल प्लास्टिक की थैली और नोटबुक बनाने में किया जाने लगा। इसके कान्टैक्ट में आने से हार्मोनल बैलेंस खराब होता है और माइक्रोबायोम को नुकसान हो सकता है।

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खाना खाना और हफ्ते में एक बार उपवास रखना आपके और आपके शरीर के लिए फायदेमंद है।

ब्लैक टी , दही और शराब सभी फर्मेन्टेड (Fermented) होते है। फर्मेन्टेशन से हमें लगभग 7000 सालों से फायदा होता आ रहा है।

आइए देखें फर्मेन्टेशन है क्या। फर्मेन्टेशन एक ऐसा प्रोसेस है जिसमें कार्बोहाइड्रेट्स को एल्कोहोल, कार्बन डाइआक्साइड या दूसरे आर्गेनिक एसिड में बदल दिया जाता है। फर्मेन्टेशन के लिए यीस्ट, बैक्टीरिया या दोनों की जरूरत होती है।

फर्मेन्टेशन के समय बैक्टीरिया विटामिन बी12 बनाते हैं। लैक्टिक एसिड फर्मेन्टेशन में शुगर को लैक्टिक एसिड में बदल दिया जाता है। इससे शरीर के लिए फायदेमंद बैक्टीरिया बढ़ने लगते हैं और नुकसानदायक बैक्टीरिया कम हो जाते हैं।

प्रोबायोटिक्स लेने का आसान तरीका है दही खाना। दही तब बनता है जब दूध लैक्टिक एसिड फर्मेन्टेशन के प्रोसेस से होकर गुजरता है

प्रोबायोटिक बैक्टीरिया के बहुत से फायदे हैं। ये विटामिन को बढ़ा कर जलन और नुकसानदायक बैक्टीरिया को कम करता है। फर्मेन्टेड खाने को शरीर जल्दी से सोख लेता है। फर्मेन्टेड खाना खाना प्रोबायोटिक्स लेने से ज्यादा फायदेमंद होता है।

उपवास करने से भी बहुत से फायदे हैं। कई धर्मों में उपवास का नाम लिया गया है। लोग लगभग 3000 सालों से इससे फायदा ले रहे हैं। उपवास कई तरह का होता है। इसमें आप कुछ समय के लिए सिर्फ कैलोरी लेना बंद कर सकते हैं या 24-72 घंटो तक पूरी तरह खाना बंद कर सकते हैं। उपवास के बहुत से फायदे होते हैं। इससे इन्सुलिन सेन्सिटिविटि बढ़ती है, झुर्रियाँ कम होती है और वजन भी कम होता है।

उपवास से माइक्रोबायोम पर पॉसिटिव असर पड़ता है । इससे लम्बे समय तक जीने वाले बैक्टीरिया की संख्या बढ़ जाती है और थोड़े समय तक जीने वाले बैक्टीरिया कम हो जाते हैं।

कोकोनट आइल और हल्दीदो ऐसी नेचुरल चीज़े हैं जो चमत्कार का काम करती है। क्या आपको कढ़ी पसंद है? अगर हाँ तो आप पहले से ही हल्दी ले रहे हैं।

हल्दी एक बहुत ही अच्छी जड़ी बूटी है। अक्सर इसे “मसालों की रानी” के रूप में पुकारा जाता है। इसकी मुख्य विशेषताएं इसकी सुगंध, तेज स्वाद और सुनहरा रंग है। पूरे विश्व में लोग इस जड़ी बूटी को अपने खाना पकाने की प्रक्रिया में इस्तेमाल करते हैं।

अमेरिकन केमिकल सोसायटी के जर्नल के मुताबिक हल्दी में एंटीऑक्सिडेंट, एंटी-वायरल, एंटी-बायोटिक, एंटी-फंगल और एंटीइंफ्लेमेटरी गुण होते हैं, ये ब्रेन सेल्स की संख्या भी बढ़ाती है। यह प्रोटीन, आहार फाइबर, नियासिन, विटामिन सी, विटामिन ई, विटामिन के, पोटेशियम, कैल्शियम, तांबे, लोहा, मैग्नीशियम और जस्ता जैसे पोषक तत्वों से भी भरपूर है। इन सभी पोषक तत्वों के कारण, हल्दी अक्सर स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार के लिए प्रयोग की जाती है। आप पाउडर के रूप में हल्दी को करी, तले हुए व्यंजन, चिकन, गर्म दूध और मसालेदार सलाद ड्रेसिंग में डाल सकते हैं। हल्दी को गोली के रूप में भी लिया जा सकता है।

भारत और चीन में हल्दी हजारों साल से उपयोग की जा रही है, लेकिन पश्चिमी देशों को इसके फायदे के बारे में हाल में ही पता चला है। हल्दी में करक्यूमिन (Curcumin) होता है जिससे ग्लूकोज आसानी से पच पाता है और खून में शुगर की मात्रा बराबर रहती है।

अगर आपको कढ़ी पसंद है तो इससे फायदा लेने के लिए इसमें हल्दी का इस्तेमाल जरूर करें।

एक दूसरी फायदेमंद चीज़ है कोकोनट आइल। ये जलन को कम करता है और माना जाता है कि यह दिमागी बीमारियाँ जैसे एल्जाइमर से न सिर्फ बचाव करता है बल्कि यह उसको ठीक भी कर सकता है।

इसे आप कुकिंग आइल की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं या रोज एक- दो चम्मच पी भी सकते है।

बाजार में इसके अलावा भी बहुत से दूसरे उपाय हैं पर अगर आप नेचुरल तरीका आजमाना चाहते हैं तो हल्दी और कोकोनट आइल से अच्छा कुछ भी नहीं है।

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कुल मिला कर

इन्टेस्टाइन का हमारी सेहत से गहरा नाता है। अगर यह स्वस्थ नहीं है तो आपको डायबीटीस, डेमेन्टिया, मोटापा और औटिस्म जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं। हम अपने खान पान में सुधार कर के इससे छुटकारा पा सकते हैं और खुद को स्वस्थ रख सकते हैं।

क्लोरीन माइक्रोबायोम के लिए नुकसानदायक होता है। इसलिए आप पानी को फिल्टर कर के पीजिए। यह ज्यादा महंगा काम नहीं है। इसके अलावा आप नहाने के पानी को भी फिल्टर कर सकते हैं। अपने फ्रिज में एक फिल्टर्ड पानी की बोतल जरूर रखें।

अगर आप एन्टी बायोटिक्स ले रहे हैं तो उसके साथ प्रोबायोटिक्स भी लेना शुरू कर दें। एन्टी बायोटिक्स शरीर के नुकसानदायक बैक्टीरिया के साथ माइक्रोबायोम को भी मार देता हैं। इससे डाईरिया

और जलन हो सकती है। प्रोबायोटिक्स शरीर के फायदेमंद बैक्टीरिया को बचाता है और हमें स्वस्थ रखता है।

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