1.CHAPTER ONE- BYE BYE BYE – WHEN COMPANIES START MARKETING TO US IN THE WOMB
इस चैप्टर में उन मैनिपुलेटर्स के बारे में बताया गया है जिनका इस्तेमाल कर के मार्केटिंग एक्सपर्ट, हम लोगों के अंदर हमारी कम उम्र के दौरान ही तमाम ब्रांड्स के बारे में अपनी पसंद बनाने का काम शुरू कर देते हैं. जिस की वजह से हम अपने बचपन के टाइम से ले कर बड़े होने तक उन ब्रांड्स में अपना भरोसा बनाए रखते हैं . यहां लिंडस्ट्रोम का कहना है कि बहुत छोटे बच्चे, जब कि वह पैदा भी नहीं हुए होते हैं और अपनी मां के पेट में ही रहते हैं उसी टाइम से उन्हें मार्केटिंग टेक्नोलॉजी के बारे में तमाम जानकारी मिलती रहती है. क्योंकि वह इस दौरान बाहरी दुनिया की आवाज को सुन सकते हैं और गर्भ की थैली में मौजूद एमनियोटिक फ्लूइड के जरिए से खुशबू और जायके को महसूस भी कर सकते हैं. ज्यादा तर फॅमिलीज को इस बात का पूरा यकीन होता है कि उनके बच्चे बड़े होने के दौरान जिस तरह के स्ट्रांग कल्चर्स, ऐटिट्यूड्स, बिलीफ, वैल्यूज और हैबिट्स में बिलीव करने लगते हैं वही उन के लिए आम तौर पर एक स्टैंडर्ड बन जाता है . और इस में यह चीजें भी शामिल होती हैं कि वह क्या पहनते हैं से लेकर क्या खाते हैं और किस ब्रांड के प्रोडक्ट को खरीदते हैं. मिसाल के तौर पर बहुत से बच्चों के घरों में हमेशा ट्रॉपिकना ऑरेंज जूस इस्तेमाल किया जाता है. और जो बच्चे अपने मां बाप को ट्रॉपिकना की एक के बाद दूसरी बोतल खरीदता देखते हुए बड़े होते हैं वह यह मानने लगते हैं कि पूरी दुनिया में सिर्फ ट्रॉपिकना ही एक ऑरेंज जूस होता है. और फिर बड़े होने के बाद भी उनकी पसंद वही बनी रहती है. अक्सर हम बड़े होने के बाद भी उसी ब्रांड को पसंद करते हैं जिसे हम बचपन में इस्तेमाल कर चुके हैं. दरअसल ऐसा नॉस्टेल्जिया की वजह से होता है. जिस को मार्केटियरर्स यानी दुकानदार मैनिपुलेटिंग कर के चुपके से और बहुत चालाकी से हमारे दिमाग में प्लांट कर देते हैं.
दूसरी तरफ छोटे बच्चों को एडवरटाइजिंग में टारगेट करने की मेन वजह यह है कि इस तरह की स्ट्रेटजीज बहुत इफेक्टिव होती हैं. और यह दो तरीके से हमारे माइंड पर असर करती हैं – पहला यह कि हम पास्ट में एक बच्चे के तौर पर जिन ब्रांड्स को यूज़ करना पसंद करते थे, वही ब्रांड्स और उनके विचार नॉस्टेल्जिया इफेक्ट की वज़ह से जिंदगी भर हमारे साथ रहते हैं. दूसरा यह कि इस स्ट्रेटजी से हमारा ध्यान ऐसे प्रोडक्ट्स की तरफ चला जाता है जिन को इस्तेमाल करके हम दोबारा से खुद को अपने बचपन की फीलिंग्स को याद करने और जीने का एक मौका दे देते हैं. दरअसल आगे आने वाले चैप्टर्स में यह बताया गया है कि नॉस्टेल्जिया यानी आप के पास्ट की खुशनुमा यादों को ताजा कर देना, जिस की वज़ह से नॉस्टेल्जिया का इफेक्ट मार्केटियर्स के लिए उन के सब से पावर फुल हिडन परसुएडीर्स में से एक होता है. हिडन परसुएडीर्स मार्केटिंग के वह छिपे हुए पावर फुल औजार होते हैं जिन के जरिए आप को जरूरत से ज्यादा खरीदारी करने के लिए उकसाया और बहलाया फुसलाया जाता है. और इस स्ट्रैटिजी को हमारा ब्रांड वाश करने वाले लोग अपने हर तरह के तरीकों में इस्तेमाल करते हैं. ब्रांड वाश का मतलब है कि किसी ब्रांड या कंपनी के बारे में आप के विचारों को बदल देना.
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2.CHAPTER TWO – PEDDLING PANIC AND PARANOIA – WHY FEAR SELLS•
इस चैप्टर में मैनिपुलेशन के एक दूसरे बहुत ताकत वर तरीके के बारे में बताया गया है – और वह तरीका है आप को डराने का . ऐसे केस में मार्केटियर्स और एडवरटाइजिंग करने वाले लोग दूसरे लोगों को मैनिपुलेट करने के लिए उन्हें डराने धमकाने की टैक्टिक्स का इस्तेमाल करते हैं. वह आप को बीमारी, इनफेक्शंस, फेलियर्स और एक ऐसे खराब मां बाप होने का डर दिखाते हैं जिन्हें अपने बच्चों की बिल्कुल भी परवाह नहीं है. जिस की वजह से लोग डरने के साथ साथ बच्चों के पालन पोषण में उन की प्रॉपरली केयर ना करने और जिंदगी के तमाम दूसरे मामलों में भी सही डिसीजन ना ले पाने के लिए खुद को ही गुनहगार मानने लगते हैं.
दरअसल डर हमे अट्रैक्ट करता है. इस की वजह यह है कि डर की वज़ह से हमारे अंदर एड्रिनैलिन का लेवल बढ़ जाता है. और हम अपने लिए किसी आने वाले खतरे का विचार करने लगते हैं. इस के बाद हमारे अंदर एपिनेफ्रीन हार्मोन रिलीज होने लगता है. जिस की वजह से हमें एक्साइटमेंट और एडवेंचर जैसे इमोशंस की एक बहुत स्ट्रांग फीलिंग होने लगती है.
अपने डर की वजह से आप ना समझी में गैर जरूरी खरीदारी करने लगते हैं. और तमाम कंपनियां भी अपने प्रोडक्ट की डिजाइनिंग और मार्केटिंग इस तरीके से करती हैं जिस से कि वह आप के अंदर उन के प्रोडक्ट्स को यूज करने की हैबिट डेवलप कर सकें. बहुत से दुकानदार आप के ऊपर आप के साथियों का बनावटी प्रेशर क्रिएट कर के भी आप को गैर जरूरी खरीदारी करने के लिए तैयार कर लेते हैं.
मार्केटियर्स और एडवरटाइजर्स इस बात को बहुत अच्छे से जानते हैं कि डर एक पावर फुल परसूएडर होता है. जिस का मतलब है कि डर को यूज कर के लोगों को गैर जरूरी खरीदारी करने के लिए बड़ी आसानी से बहलाया फुसलाया जा सकता है. यही वजह है कि मार्केटियर्स के इस तरह के विज्ञापन उन के लिए बहुत अच्छा काम करते हैं. क्यूंकि यह हमारी जिंदगी में दो जगहों पर बहुत पॉवर फुल तरीके से चोट पहुंचाते हैं – यह हैं डर और गिल्ट यानी हमारे गुनाह का एहसास. जिन में से गिल्ट को एक ग्लोबल वायरस की तरह से माना जा सकता है. इस वायरस को मार्केटियर्स और एडवरटाइजर्स बहुत अच्छी तरह से हमारे बीच में फैला देते हैं.
लिंडस्ट्रोम के मुताबिक जिन औरतों ने अभी हाल ही में बच्चों को जन्म दिया है या जिन के बच्चे अभी छोटे हैं वह बहुत जल्दी अपने गिल्ट का शिकार हो जाती हैं. दरअसल उन को हर वक़्त इस बात का डर सताता रहता है कि कहीं उनकी लापरवाही की वजह से बच्चे को कोई बीमारी या इंफेक्शन ना हो जाए. इस वजह से वह बहुत ज्यादा साफ सफाई का ध्यान रखने लगती हैं. इसके बाद भी मार्केटियर्स और एडवरटाइजर्स न्यू मदर्स के अंदर बैठे हुए डर और उन से कहीं कोई गलती हो जाये, इस एहसास को अपने फायदे के लिए एक्सप्लॉइट करते हैं. जिस के लिए वह लोग ऐसी स्किल फुल टैक्टिक्स का यूज करते हैं जिस में यह दावा किया जाता है कि अगर आप उनके बनाये सारे प्रोडक्ट्स को नहीं खरीदती हैं तो आप बिल्कुल भी एक अच्छी मां नहीं हैं.
इसी तरह से दवाइयों वगैरह के विज्ञापन का भी हमारी जिंदगी में बहुत अहम रोल होता है. यह विज्ञापन हमारे अंदर मौत, बीमारियों और बुढ़ापे के लिए हमारे डर को बढ़ा कर हमें उन के प्रोडक्ट खरीदने के लिए बहलाते फुसलाते हैं. फार्मास्यूटिकल कंपनियां भी कई तरीकों से डर का इस्तेमाल करके आप को अपना शिकार बना लेती हैं. यह लोग फ्यूचर में होने वाली हमारी भयानक कंडीशन के बारे में हमें ना सिर्फ याद दिलाते हैं जैसे कि हमें शर्मिंदा करने वाली स्किन डिजीज या तकलीफ दे कैंसर वगैरह. यह लोग हमारे दिल में ऐसी कंडीशन्स के लिए भी डर पैदा करने की कोशिश करते हैं जिन के बारे में हमने कभी नहीं सुना. और इस काम के लिए यह लोग हर साल लाखों डॉलर खर्च करते हैं. इसी वजह से आजकल बड़ी फार्मा कंपनियां रिसर्च और डेवलपमेंट के मुकाबले अपने प्रमोशन और विज्ञापन पर 2 गुना ज्यादा पैसा खर्च करती हैं.
3.CHAPTER THREE – I CAN’T QUIT YOU – BRAND ADDICTS, SHOPAHOLICS AND WHY WE CAN’T LIVE WITHOUT OUR SMARTPHONES
इस चैप्टर में लिंडस्ट्रोम ने हमें ओनियोमेनिया के बारे में समझाया है. जिसका मतलब है कि ब्रांड के जुनून और उस के नशे की लत से होने वाले बुरे नतीजों को जानने के बावजूद बगैर जरूरत के ही लगा तार किसी भी चीज की खरीदारी करते रहने की आदत का होना. इन सब के बारे में जानने के बावजूद आप अपनी खरीदारी की इच्छाओं पर कंट्रोल नहीं कर पाते. इसी वजह से आप अपनी शॉपिंग करने की लत को पूरा करने के लिए बिल्कुल उसी तरह के पैटर्न को फॉलो करते हैं जो किसी भी दूसरे नशे की लत को पूरा करने के लिए किया जाता है. मार्केटिंग एक्सपर्ट्स के मुताबिक यह पैटर्न ऐसा होता है – सबसे पहले आता है एंटीसिपेशन ऑफ शॉपिंग यानी पहले से ही शॉपिंग करने के लिए तैयार रहना . इसके बाद शॉपिंग का एक्सपीरियंस करना. जिस में लोगों को अलग अलग तरह का एक्सपीरियंस होता है. किसी को इस में खुशी मिलती है, कोई खुशी से पागल हो जाता है और कुछ लोगों को अपनी नेगेटिव फीलिंग्स से राहत मिल जाती है . लेकिन उन की यह राहत बहुत थोड़े समय तक के लिए रहती है. और फिर आखिर कार उन की यह राहत धीरे धीरे गायब हो जाती है और खरीदारी करने वाला शख्स बिल्कुल टूट जाता है . इस के बाद वह शख्स किसी ऐसे शराबी की तरह जिसने बहुत ज्यादा शराब पी ली हो, अपनी गलतियों का एहसास और अपने किए पर पछतावा करने लगता है. हालांकि कुछ टाइम बाद वह फिर से उन्हें सब चीजों को दोहराने लगता है. अमेरिकन साइकियाट्रिस्ट एसोसिएशन के मुताबिक कम्पलसिव शॉपर्स यानी शॉपिंग करने की आदत से मजबूर लोग अपनी नेगेटिव फीलिंग्स जैसे उदासी, घबराहट, बोरियत और खुद की गलतियों को ढूंढने वाले विचार और गुस्से से दूर भागने के लिए शॉपिंग का सहारा लेते हैं. इस वजह से बहुत से लोगों को उनकी बेकाबू शॉपिंग की इच्छाओं को कम करने के लिए एंटी डिप्रेसन्ट दवाइयां लेने की सलाह दी जाती है.
जैसा कि इस किताब में पहले ही बताया जा चुका है कि मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग के जरिए तमाम तरह की फरियाद और मिन्नतें कर के लोगों के इमोशंस पर असर डाला जाता है. जैसे कि डर और इनसिक्योरिटी वगैरा के बारे में बहलाना फुसलाना. जिस का नतीजा यह होता है कि हम लोग पहले से ही जबरदस्ती की खरीदारी के लिए अपना मन बना लेते हैं. इस लिए तमाम कंपनियां और एडवरटाइजर्स हमारी इच्छाओं को अपने मुताबिक मैनिपुलेट करते हैं और अपने ब्रांड या प्रोडक्ट को इस तरह से बनाते हैं जिस की वजह से हम उनका विरोध नहीं कर पाते और उन्हें खरीदने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
हम चाहे कितना भी यकीन क्यों न कर लें कि शॉपिंग के मामले में हमें अपने ऊपर बहुत कंट्रोल है. लेकिन सच्चाई यही है कि जब ब्रांड के नशे का सवाल होता है तो फिर हम इन मार्केटिंग ट्रिगर्स के सामने बिल्कुल बेबस और लाचार हो जाते हैं. कंपनियां इस बात को जानती हैं. इसी वजह से वह लोग जान बूझकर अपनी पैकेजिंग और एडवरटाइजिंग के जरिए चुपके से ब्रांडिंग के नशे को भड़काने वाले सिगनल्स हमारे दिलों में बैठा देते हैं.
आज कल हमारे सामने हर तरफ बहुत सी वेब साइट्स रियल शॉपिंग गेम को भी ले कर आने लगी हैं. इन साइट्स को सोशल फ्लैश शॉपिंग साइट्स कहा जाता है. जिन के जरिए टॉप लक्ज़री डिजाइनर्स के आइटम्स को सिर्फ एक लिमिटेड समय के लिए ही बिक्री करने के लिए रखा जाता है .
यह सब देखने के बाद समझ में नहीं आता कि आखिर मार्केटिंग का यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा. लेकिन एक बात तो तय है कि चाहे हमारे अंदर ब्रांडिंग के नशे को बढ़ाने के तरीकों का इस्तेमाल किया जाए या चुपके से किसी प्रोडक्ट में केमिकल वाली नशीली चीज को मिला कर हमारे दिल में उस के लिए पसंद पैदा कर दी जाये या फिर हमारे शॉपिंग करने या पैसा खर्च करने को किसी गेम में बदल दिया जाए, इन सब कामों के लिए कंपनियां और मार्केटियर्स हमारे इमोशंस और इच्छाओं को मैनिपुलेट करने और अपने प्रॉडक्ट्स का मुरीद बनाने में ज्यादा से ज्यादा बेहतर होते जा रहे हैं.
4.CHAPTER FOUR – BUY IT, GET LAID – NEW FACE OF SEX (AND THE SEXES) IN ADVERTISING
इस चैप्टर में लोगों की सेक्सुअलिटी को हाईलाइट करने वाले एडवरटाइजिंग के तरीकों के बारे में बताया गया है. जिस के लिए मार्केटिंग एक्सपर्ट, लोगों की सबसे गहरी सेक्सुअल फेंटेसीज के बारे बहुत अच्छी तरह से छान बीन करते हैं.
सेक्सुअल फेंटेसीज का मतलब किसी शख्स के लिए सेक्सुअलिटी के बारे में और सेक्सुअल एक्साइटमेंट पैदा करने वाला सोच विचार करना होता है. जब कि सेक्सुअलिटी किसी शख्स के अंदर सेक्सुअल फीलिंग्स, विचार और दूसरे लोगों के लिए उन के अट्रैक्शन और बर्ताव को कहते हैं.
दरअसल मार्केटियर्स जान बूझ कर अपने विज्ञापनों के जरिए एक नॉस्टैल्जिया क्रिएट करते हैं. जिस का मतलब है लोगों के पास्ट की खुशनुमा यादों को एक बार फिर से ताजा कर देना. जिस की वजह से आप अपने उन्हीं यादगार एहसासों को फिर से महसूस करना चाहते हैं. इस के बाद यह लोग आप के इसी मूड और चाहत का फायदा उठा कर यह प्रॉमिस करते हैं कि उन के प्रोडक्ट्स लोगों की सेक्सुअलिटी को बढ़ाने में और उनको पहले से ज्यादा सेक्सी बनाने में मदद करते हैं. और फिर लोगों की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर यह लोग खूब पैसे कमाते हैं.
एक रिसर्च के हवाले से यहां लिंडस्ट्रोम का यह कहना है कि आदमी और औरत दोनों ही लोग सेक्स को उकसाने वाले कमर्शियल विज्ञापनों पर रिएक्ट करते हैं. जिन में मॉडल्स बहुत कम कपड़ों में लोगों को उसी तरह से चीजों को दिखाते हैं जैसे कि वह रियल लाइफ में सेक्सुअल सुझाव देने के लिए रिस्पॉन्ड कर रहे हों. आमतौर पर औरतों को सेक्स के मामले में ऐसे विज्ञापन के जरिए ज्यादा आसानी से बहलाया फुसलाया जा सकता है जिन में सेक्सुअल की जगह ज्यादा रोमांटिक कंटेंट होते हैं, और जो जिम्मेदारी निभाने, और लगन के साथ पार्टनरशिप को बनाए रखने पर जोर देते हैं. वहीं दूसरी तरफ आदमी लोग सेक्सुअल मामले में इनडायरेक्ट तरीके से ताना कसने वाली बातों पर और औरतों की बिकिनी पर रिस्पॉन्ड करते हैं.
लिंडस्ट्रोम का कहना है कि एक रिसर्च में यह खुलासा हुआ है कि हमे खरीदारी करने के लिए बहलाने फुसलाने में सेक्सी विज्ञापन कभी – कभी ना काम भी हो सकते हैं. लेकिन फिर भी सेक्स के नजरिए से सुझाव देने वाले विज्ञापन बखूबी अपना काम कर जाते हैं. क्योंकि जब हम बहुत से अट्रैक्टिव नौजवान लोगों को एक एनर्जी ड्रिंक का, या अंडर वियर का या फिर कॉस्मेटिक्स की एक नई लाइन का विज्ञापन करते हुए देखते हैं तो हमारे माइंड में मौजूद मिरर न्यूरॉन्स की वजह से हम खुद को भी उन्हीं लोगों की तरह से एक मनचाहा अट्रैक्टिव शख्स इमेजिन कर लेते हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे विज्ञापन हमारे अंदर एक उम्मीद और सपनों को पैदा करने वाले होते हैं.
यहां इस किताब में यह भी बताया गया है कि नाइनटीज के दशक में घर का बड़ा मुखिया ही अपने बच्चों और वाइफ की खरीदारी का पेमेंट अपने वॉलेट से किया करता था. क्योंकि उस वक्त के दौरान ज्यादा तर टीन ऐज और उस से कम उम्र के बच्चे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने पेरेंट्स पर ही डिपेंड रहते थे. और उन की शॉपिंग का पेमेंट करने वाले शख्स को उन की खरीदी गई चीजों के बारे में उन से बात करने का एक मौका रहता था. लेकिन इस केस में मार्केटियर्स और एडवरटाइजर्स को भी एक चैलेंज का सामना करना होता था.
दरअसल उन्हें बच्चों का सामान बेचने के लिए उन के पिता यानी एक बालिग आदमी को उन के प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए राजी करने की स्ट्रेटेजी बनानी पड़ती थी.
लेकिन आज के दौर में टेक्नोलॉजी इतनी ज्यादा डिवेलप कर चुकी है कि पेरेंट्स और उन के टीन एज बच्चे एक साथ सेल फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं. उन सब के अलग – अलग फेस बुक अकाउंट्स हैं. और मोटे तौर पर उन सब की एक जैसी ही कल्चरल सेंसिबिलिटीज भी हैं. जैसे वह लोग एक ही मूवी देखने जाते हैं, ज्यादा तर एक जैसा म्यूजिक सुनते हैं, और टी वी पर एक जैसा शो देखते हैं. इस वजह से हॉलीवुड और म्यूजिक इंडस्ट्री को ऐसे एडल्ट कंटेंट डिवेलप करने के रास्ते तलाश करने होते हैं जो कम उम्र के ऑडियंस के लिए भी सूटेबल हो सकें.
बेशक एडवर्टाइजमेंट में सेक्स को शामिल करना इस किताब में बताई गई सबसे पुरानी ट्रिक्स में से एक हो सकती है. लेकिन एक चीज तो बिल्कुल क्लियर है कि चाहे वह हमारी सबसे गहरी और छिपी सेक्सुअल फैंटसीज की जांच पड़ताल करना हो या सेक्स के मामले में हमारे नौजवानों के पुराने खुशनुमा अच्छे दिनों की याद ताजा करने का नास्टैल्जिया इफेक्ट क्रिएट करना हो, या फिर हमें और ज्यादा सेक्सुअली अट्रैक्टिव बनाने का प्रॉमिस करना हो, आज कल के मार्केटियर्स और एडवर्टाइजर्स के पास ऐसे हर तरह के नए तरीके मौजूद होते हैं जिन को इस्तेमाल कर के यह लोग हमारी सबसे पुरानी इंसानी इच्छाओं का फायदा उठाते हैं और इस प्रोसेस में खूब पैसा कमाते हैं.
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5.CHAPTER FIVE – UNDER PRESSURE – THE POWER OF PEERS
इस चैप्टर में कांशसनेस ब्रांडिंग की वज़ह से होने वाले सोशल प्रेशर की पावर के बारे में बताया गया है. इसके मुताबिक जब बहुत से लोग मिल कर किसी चीज को अप्रूव करते हैं तो हम यह सोचना शुरू कर देते हैं कि वह लोग सही हैं क्योंकि जब बहुत से लोग एक साथ ऐसा सोचते हैं तो साइकोलॉजिस्ट इस घटना को एक सोशल पीयर प्रेशर कहते हैं . मार्केटियर्स इस तरीके का इस्तेमाल लोगों को अपने ब्रांड्स खरीदने के लिए तैयार करने में करते हैं.
यहां लिंडस्ट्रोम यह कहते हैं कि जब हमें किसी चीज को खरीदना होता है तो दूसरे लोगों का उसी चीज के बारे में सोचना हमारे लिए बहुत मैटर करता है. फिर चाहे वह लोग हमारे लिए बिल्कुल अजनबी ही क्यों ना हों.
यह देखने के लिए कि बिल्कुल अजनबी लोगों की पसंद और खरीदारी कितने पावर फुल तरीके से हमारे डिसीजन के ऊपर असर डाल सकती है, आप तमाम चीजों की बेस्ट सेलर लिस्ट्स के फैक्ट को कंसीडर कीजिए. चाहे वह बेस्ट टेस्टिंग वोदका शराब हो, या बेस्ट सेलिंग नॉवेल ऑफ द मंथ हो या फिर साल की सब से ज्यादा मुनाफा कमाने वाली मूवी हो, आप इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं कि कंपनियां बहुत जान बूझ कर बेस्ट सेलर लिस्ट्स का इस्तेमाल इस वज़ह से करती हैं ताकि वह लोग हमें उन चीजों को खरीदने के लिए राजी कर सकें जिन चीजों को दूसरे लोग भी पसंद करते हैं . क्योंकि आप अनजाने में ही यह सोचने लगते हैं कि अगर इतने सारे लोग इन को पसंद करते हैं तो यह चीजें जरूर अच्छी ही होंगी. इसके बाद आप भी यह सोच कर इन चीजों में पैसा खर्च करते हैं कि कहीं आप दूसरे लोगों से पिछड़ न जाएं.
इस मामले में अमेज़न कंपनी इस से भी आगे बढ़ कर एक बहुत आसान स्टेप लेती है. यह कंपनी ईमेल के जरिए अपने कस्टमर्स को यह बताती है कि किसी खास चीज को खरीदने वाले उन के साथी कस्टमर्स ने किसी दूसरे नए आइटम को भी पर्चेज किया है. इस वजह से वो लोग भी उस आइटम को पसंद कर सकते थे. यह ना सिर्फ एक पूरी तरह से पीयर प्रेशर बनाने का केस है बल्कि यह एक डाटा माइनिंग का केस भी है. जिसका मतलब है कि इस तरीके से आप के डिजिटल डाटा में से इम्पोर्टेन्ट जानकारियां निकाली जाती हैं. डाटा माइनिंग का इस्तेमाल कर के छिपे हुए पैटर्न्स और यूज फुल डाटा को खोजा जाता है और फिर इन पैटर्न्स और डाटा के बेस पर डिसिजन मेकिंग की जाती है और डाटा माइनिंग के प्रोसेस से ऑर्गेनाइजेशन्स बिज़नस में आने वाली प्रॉब्लम को हल करते हैं.
यहां लिंडस्ट्रोम कहते हैं कि उन्होंने इस किताब में पहले के चैप्टर में यह बताया है कि कैसे हमने सेल फोन और स्मार्ट फोन की वजह से अपने मन में अकेले हो जाने का डर बैठा लिया है. जबकि विडंबना यह है कि दूसरे लोगों से लगा तार जुड़े रहने की हमारी काबिलियत की वजह से ही हमारे अंदर अनपापुलर हो जाने और दूसरों का प्यार ना मिल पाने का डर भी बढ़ता जा रहा है.
इस मामले में इंटरनेट और खास कर सोशल नेट वर्किंग साइट्स ने भी खुलासा किया है कि हममें से बहुत से लोग किस हद तक इस बात से डरते हैं कि हमारी ओपिनियन और हमारी मौजूदगी से शायद कोई फर्क नहीं पड़ता. सिर्फ हर समय दूसरों से जुड़े रहने की काबिलियत असल में इस डर को बढ़ाती है कि हम अकेले हैं. और हमारी कमेंट करने की, सिद्धांत वाली बात करने की और हर समय खुद का ब्रॉडकास्ट करने की काबिलियत हमारे डर को बढ़ाती है कि असल में कोई इस बात की परवाह नहीं करता कि हमें क्या कहना चाहिए. शायद इसी इनसिक्युरिटी और खुद को अकेला छोड़ दिए जाने के डर की वज़ह से ही लोग फेसबुक को इस्तेमाल करने लगे हैं . और फिर तमाम कंपनियों ने फेसबुक पर मौजूद यकीनी असर डालने वाले कनेक्शंस की पावर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इसी लिए यह लोग बहुत स्किलफुली फेसबुक पर अपने प्रोडक्ट को मार्केटिंग और एडवर्टाइजिंग करते हैं..
6. CHAPTER SIX – OH SWEET MEMORIES – THE NEW (BUT ALSO OLD) FACE OF NOSTALGIA
इस चैप्टर में हमें एक बार फिर से मार्केटिंग में नॉस्टेल्जिया का सामना करने के बारे में बताया गया है. इस तरीके का इस्तेमाल करने के लिए एक ऐसी स्ट्रेटजी पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जिस में आप को साउंड, पिक्चर्स और इमेजेज का इस्तेमाल कर के आप की पुरानी खुशनुमा यादों को फिर से याद दिलाया जाता है. इस तरीके में नॉस्टैल्जिया का इस्तेमाल करने के लिए कुछ खास रूल्स को फॉलो करना जरूरी होता है और साथ ही साथ लोगों को पुराने और आउट ऑफ डेट हो चुके ब्रांड्स के बारे में भी याद दिलाया जाता है.
लिंडस्ट्रॉम ने इस चैप्टर में आर्टिफिशियल इमपरफेक्शन इन द प्रोडक्ट के बारे में भी समझाया है. जिस के मुताबिक प्रोडक्ट में कुछ बनावटी चीजों को मिला कर उन्हें ज्यादा रियल बना दिया जाता है जिस की वजह लोग इनको खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं .
यहां पर वह कहते हैं कि नॉस्टेल्जिया मार्केटिंग हमेशा से एक कामयाब स्ट्रेटजी रही है. जिस के जरिए एडवर्टाइजर्स आज के दौर के प्रोडक्ट को बेचने के लिए दसियों साल पुराने साइट, साउंड और फील को फिर से क्रिएट करते हैं. इसी लिए कभी – कभी यह लोग किसी पुराने कमर्शियल एड या पैकेजिंग की कोई पुरानी स्टाइल या फिर किसी आइकन या स्पोक्सपर्सन को दिखाया करते हैं. जिन की वज़ह से 30 या 40 साल से ज्यादा उम्र के लोग बड़े प्यार के साथ अपने बचपन के दिनों को याद करने लगते हैं. मार्केटियर्स इसके अलावा भी बहुत बारीकी से आप के पुराने दिनों की यादों को ताजा कर के या किसी पुराने ब्रांड को फिर से दिखा कर आप को नॉस्टैल्जिया मार्केटिंग के जरिए मैनिपुलेट कर लेते हैं. जिसकी वजह से आप उन के प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए बड़ी मजबूती से तैयार हो जाते हैं.
बहुत से कंजूमर्स तमाम चीजों के अंदर स्मॉल इमपरफ़ेक्शन्स यानी थोड़ा सा अधूरा पन देखकर उस की तरफ अट्रेक्ट होते हैं. इस बात को बहुत सी कंपनियां अच्छी तरह से जानती हैं.
दरअसल कुदरत की खूबसूरती के बारे में बताने वाले जैपनीज टर्म का नाम ‘ वाबी – साबी ‘ है. जिस को नेचर की खूबसूरती दिखाने के लिए एक आर्ट के तौर पर ट्रांसलेट किया जा सकता है. जैसे कि चाहे आप को केले की तस्वीर के ऊपर एक ब्राउन स्पॉट दिखाया जाए या फिर किसी तस्वीर में पेड़ की छाल में एक गांठ को दिखाया जाये, आप उस की तरफ अट्रैक्ट होने से खुद को नहीं रोक पाते हैं.
परफेक्शन हमें किसी चालाक कंज्यूमर की तरह बना देता है. जैसे कि हम सब जानते हैं, कि कभी भी कोई चीज़ सही मायने में बिल्कुल परफेक्ट नहीं होती है. लेकिन इस के बावजूद जब कोई चीज हमारे सामने आती है तो हम उसकी ऑथेंटिसिटी यानी उसके सही होने की जांच करने के लिए अनजाने में ही उसके अंदर कमियां ढूंढने लगते हैं. लेकिन हमारे मन में यह ख्याल जरूर आता है कि आखिर ऑथेंटिक होता क्या है ? वेबस्टर के मुताबिक किसी चीज की ऑथेंटिसिटी को भरोसे के काबिल और एक्सेप्ट किए जाने लायक होने के तौर पर डिफाइन किया गया है. लेकिन जब मार्केटियर्स और एडवरटाइजिंग की दुनिया में लोगों को मैनिपुलेट करने के लिए बेईमानी किए जाने की बात होती है तो चीजें कुछ अलग तरह से बदल जाती हैं. इसी लिए आज कल बहुत से मार्केटियर्स अपने प्रोडक्ट्स में बहुत बारीकी से थोड़े बहुत इंपरफेक्शंस को ऐड करना इंट्रोड्यूस करने लगे हैं. इस तरह से वह लोग हमारे सामने ऑथेंटिसिटी का इंप्रेशन क्रिएट करने की एक कोशिश करते हैं.
मार्केटियर्स यह जानते हैं कि हम सब एक कंजूमर के तौर पर अपने पास्ट की निशानी को ले कर बहुत इमोशनल हो जाते हैं. आज कल बहुत से ब्रांड्स और प्रोडक्ट्स तो इस से भी कहीं आगे निकल कर इस तरह से बनाए जा रहे हैं जो कि पास्ट में कभी होते ही नहीं थे.
दरअसल हमारा पर्सनल पास्ट आने वाले सालों में भी ना सिर्फ हमारी ब्रांड प्रेफरेंस पर असर डाल सकता है बल्कि इस की वजह से हमारे अंदर अपने हिस्ट्री और कल्चर के टेस्ट और फ्लेवर लिए भी लगाव बना रहता है.
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7.CHAPTER SEVEN – MARKETER’S ROYAL FLUSH – THE HIDDEN POWERS OF CELEBRITY AND FAME
इस चैप्टर में लिंडस्ट्रॉम यह कहते हैं कि मार्केटियर्स अक्सर अपने प्रॉडक्ट का प्रमोशन करने के लिए रॉयल फॅमिलीज को यूज करते हैं. उनके मुताबिक रॉयल्टी में ऐसी कुछ बातें जरूर होती हैं जो ज्यादा तर लोगों के खयालों और चाहतों को बहुत बढ़ावा देती हैं. दरअसल बच्चे अक्सर परियों की कहानियों में रॉयल्टी के बारे में पढ़ कर और फिल्मों वगैरह में रॉयल्टी को देख कर बड़े होते हैं. बच्चों के साथ- साथ बहुत से बालिग लोगों पर भी फिल्मों में दिखाई गई रॉयल्टी का असर पड़ता है. इस वजह से उन के अंदर भी रॉयल्टी के साथ जीने की चाहत पैदा हो जाती है. यहां तक कि दुनिया के सबसे अमीर और पावर फुल लोगों में से एक बिल गेट्स जैसे मोस्ट सक्सेसफुल शख्स भी रॉयल फैमिली के साथ डिनर करना पसंद करते हैं.
लिंडस्ट्रोम के मुताबिक एक रॉयल फैमिली और एक ब्रांड में यह अंतर होता है कि किसी ब्रांड को अगले छह महीनों पर फोकस किया जाता है जब कि आम तौर पर एक रॉयल फॅमिली का मार्केटिंग प्लान अगले 75 सालों के लिए होता है.
यहां उन्होंने यह भी बताया है कि किसी मशहूर सेलिब्रिटी का चेहरा आप के पैसा खर्च करने के तरीके पर बहुत असर डाल सकता है सेलिब्रिटीज को सेंटर में रखकर बनाई गईं मार्केट स्ट्रेटजीज बहुत पावर फुल तरीके से हमारी उन चाहतों को अट्रैक्ट करती हैं कि हम फ्यूचर में किन की तरह दिखना चाहते हैं. उन का कहना है कि असल में रॉयल फॅमिलीज को दुनिया के इतिहास में सबसे पहली सेलिब्रिटीज माना जाता है. यह लोग सिविलाइजेशन का दौर शुरू होने के समय से ही अपने देश के लिए वहां की पब्लिक का चेहरा होते हैं. क्यूंकि यह फॅमिलीज अपने देश की वैल्यूज और वहां के रीति रिवाजों के बारे में सारी चीजों को बताती हैं. और देश के सारे नागरिकों को वहां की परंपरा की डोर से एक साथ बांधे रखने में मदद करती हैं. यह एक तरह के जीते जागते टूरिस्ट ब्यूरो होते हैं. इन्हीं की वजह से देश में बहुत सारा कैपिटल आता है और बिजनेस और इंडस्ट्रीज तरक्की करती हैं. अगर शॉर्ट में कहा जाए तो यह अपने आप में ब्रांड्स होते हैं और बहुत फायदेमंद भी होते हैं. मार्केटियर्स और एडवरटाइजर्स बहुत स्किल फुली इन के रॉयल रहन सहन की स्टाइल को यूज़ कर के लोगों की चाहतों को भड़काते हैं और उन को अपने प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए मैनिपुलेट करते हैं.
दूसरी तरफ मार्केटियर्स इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि जब सेलिब्रिटीज अपनी तस्वीरें खिंचवाते समय या वीडियो में किसी प्रोडक्ट के साथ दिखाई देते हैं, खास तौर से तब, जब कि वह उस को इंजॉय कर रहे होते हैं, तो उस प्रोडक्ट की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ जाती है.
दूसरी तरफ आज कल के सेलिब्रिटीज खास कर के म्यूजिक इंडस्ट्रीज वाले सेलिब्रिटीज एक मार्केटिंग प्लान के बगैर नहीं रह सकते हैं. और ज्यादा से ज्यादा पॉप म्यूजिक स्टार्स अपनी मदद करने के लिए मार्केटिंग एक्सपर्ट्स को अपने साथ लगाए रखते हैं. यह लोग ना सिर्फ उन सेलिब्रिटीज की इमेज और वैल्यू को डिफाइन करने में मदद करते हैं बल्कि वह उनके लिए यह भी तय करते हैं कि उन्हें और ज्यादा सक्सेसफुल होने के लिए और अपने ब्रांड को मैनेज करने के लिए अपने किन खास तरह के ऑडियंस को टारगेट करना चाहिए ?
लिंडस्ट्रोम ने एक सेलिब्रिटी को ऐसे सिंबल या आइकॉन के तौर पर डिफाइन किया है जिस के अंदर ऐसी पॉपुलर और यूज फुल खासियतों की वैरायटी होती है, जिन की वजह से हम में से बहुत से लोग उनसे प्रभावित हो जाते हैं. जैसे कि ब्यूटी, चार्म, सेक्स अपील और ग्लैमर वगैरह.
हम में से बहुत से लोगों का यह मानना है कि सेलिब्रिटी किसी सपनों की दुनिया में जीते हैं. हर बार जब भी हम किसी गॉसिप मैगजीन को उठाते हैं या किसी अवॉर्ड फंक्शन को देखते हैं, तो उस वक्त हम लोग वहां पर रेड कार्पेट वेलकम, हजारों तरह की ड्रेसज, परफेक्ट कॉम्प्लेक्शन वाली अट्रेक्टिव औरतों और बहुत पैसे वाले शानदार आदमियों को देख कर फौरन ही बहकने लगते हैं. हमारी इसी मेंटल स्टेट का फायदा उठाकर मार्केटियर्स हमें सेलिब्रिटीज के जरिए मैनिपुलेट करते हैं और हमें अपने प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए तैयार कर लेते हैं.
8.CHAPTER EIGHT – HOPE IN A JAR – THE PRICE OF HEALTH, HAPPINESS AND SPIRITUAL ENLIGHTENMENT
इस चैप्टर में स्पिरिचुअल मार्केटिंग के बारे में बहुत अच्छी तरह से फोकस किया गया है . आज कल लोग अपनी हेल्थ को लेकर बहुत अवेयर हो गए हैं और एक हेल्थी लाइफ जीने के तरीकों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देने लगे हैं. लोगों की इन्हीं इच्छाओं का इस्तेमाल मार्केटियर्स अपने फायदे के लिए करते हैं. इसी वजह से अब नेचुरल और हेल्दी फूड के नाम से बहुत से प्रोडक्ट्स बाजार में दिखाई देने लगे हैं. लेकिन इन को ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि यह असल में रेगुलर प्रोडक्ट्स ही हैं. बस इन पर मार्केटिंग और ब्रांडिंग का एक कवर लगा दिया गया है.
यहां पर लिंडस्ट्रोम ने उत्तरी नेपाल में हिमालय की ऊंची पहाड़ियों में पाई जाने वाली ‘ गोजी’ नाम की एक मैजिकल बेरी के बारे में बताया है. यह एक काफी महंगा छोटा फ्रूट होता है जो लाल रंग की किशमिश की तरह दिखाई पड़ता है. जिस को सुखाकर इसका जूस बनाया जाता है और एक हेल्दी ड्रिंक के तौर पर इसको यूज़ किया जाता है. इसकी स्टाइलिश और महंगी दिखने वाली बोतल पर ऐसी तस्वीरें बनाई जाती हैं जिस में बर्फ से ढकी हुई हिमालय की
ऊंची और पवित्र पहाड़ियां बहुत शानदार तरीके से बादलों के अंदर गायब होती हुई दिखाई पड़ती हैं. और सामने की तरफ लाल रंग की गोजी बेरी का गुच्छा एक पत्ते के डंठल के साथ लटकता हुआ दिखाई देता है . इस तरीके से मार्केटियर्स हमें यह यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि गोजी बेरी मे हमारी बॉडी को मजबूत बनाने की जादुई ताकत के साथ साथ स्पिरिचुअल प्रॉपर्टीज भी होती हैं.
लिंडस्ट्रोम आगे कहते हैं कि हमारे दिमाग हमेशा शॉर्ट कट बनाने में लगे रहते हैं. जिन को सोमेटिक मार्कर्स कहते हैं. और जो हमारे फिजिकल वर्ल्ड के इशारों को किन्हीं खास इमोशन्स के हालात और प्रॉपर्टीज से जोड़ने का काम करते हैं. इसी बात का फायदा उठा कर बहुत सी कंपनियां हमारे दिमाग में सोमेटिक मार्कर्स को प्लांट करने का काम करती हैं. इसी लिए वह लोग कुछ पॉजिटिव इमोशंस और अपने प्रोडक्ट के बीच में एक रिलेशन क्रिएट करते हैं. गोजी बेरी के मामले में भी बिल्कुल ऐसा ही किया जाता है.
हालांकि गोजी बेरी चाइना और मलेशिया में पाई जाती है लेकिन फिर भी ज्यादा तर इसको हिमालय के पहाड़ों से जोड़ दिया जाता है. क्योंकि पहले यहीं पर दलाई लामा का घर भी हुआ करता था. और जब हम दुनिया की ऐसी जगह के बारे में सोचते हैं तो हमारे दिमाग में सबसे पहले बुद्धिज्म और उसके सिंबल्स के बारे में ख्याल आता है. जैसे प्योरिटी, सादगी, दया, ज्ञान, निस्वार्थ होने की भावना और आखिर में एनलाइटनमेंट.
इन प्रोडक्ट्स के मार्केटियर्स यह बात जानते हैं. इसी वजह से यह लोग बहुत चालाकी से हमारे दिमाग को उन के प्रोडक्ट्स की स्पिरिचुअल प्रॉपर्टीज के साथ जुड़ने के लिए उकसाते हैं.
लिंडस्ट्रोम का कहना है कि चाहे यह ब्रांड्स हमारी अच्छी हेल्थ, हमारी खुशियों और इनलाइटनमेंट को हासिल करने के लिए कितने भी प्रॉमिस क्यों न करते हों, लेकिन फिर भी मार्केटियर्स हमारी सबसे बड़ी इंसानी इच्छा का भरपूर फायदा उठाने के लिए अपने जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं. क्योंकि हमारी बुनियादी इच्छा यही है कि हम ज्यादा से ज्यादा लंबे वक्त तक के लिए अच्छी हेल्थ और खुशी के साथ धरती पर जिंदा रह सकें.
इसी लिए यह लोग हमें पैसों के बदले में एक बेदाग और बेगुनाह जिंदगी हासिल करने के लिए या हमारी जिंदगी में से टेंशन को दूर करने के लिए हमें मैनिपुलेट करते हैं. और फिर हमें हमारी अंदर की शांति, स्पिरिचुअल फुल फिल मेंट और एक बेहतर जिंदगी जीने के तरीके बेचते हैं. इन के अलावा यह लोग हमें उम्मीदें भी बेचते हैं. और यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है. कंपनियां पिछले करीब 100 सालों से हमें किसी न किसी तरीके से उम्मीदें बेच रही हैं. क्यूंकि उम्मीद दिखा कर मार्केटियर्स बड़ी आसानी से हमें खरीदारी करने के लिए मैनिपुलेट कर सकते हैं .
दरअसल हम उम्मीद के लिए तरसते हैं. और हमें इसकी जरूरत होती है. इसी लिए हम इसे खरीद लेते हैं.
9.CHAPTER NINE – EVERY BREATH YOU TAKE, THEY’LL BE WATCHING YOU – THE END OF PRIVACY
इस चैप्टर में लिंडस्ट्रॉम ने लोगों के सीक्रेट पर्सनल डेटा को चुराये जाने की प्रॉब्लम पर ध्यान देकर इस बारे में समझाया है. आज कल डिजिटल कूपन, लॉयल्टी प्रोग्राम और मार्केटिंग सॉफ्ट वेयर वगैरह जैसी तमाम टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर के किसी भी शख्स के पर्सनल डेटा के बारे में आसानी से तमाम जानकारी को हासिल किया जा सकता है. इन सब चीजों को करने के पीछे मार्केटियर्स का इरादा कंजूमर की कॉन्शस नेस को मैनिपुलेट कर के उन को किसी खास ब्रांड को चूज करने के लिए तैयार करने का होता है.
आज कल कंपनियां सोफिस्टिकेटेड टेक्निक्स का इस्तेमाल कर के हर तरह की चीजों पर आप के पैसा खर्च करने की सारी जानकारी अपने पास रखती हैं. और शायद इसी लिए यह लोग आपकी चाहतों, जरूरतों सपनों और आदतों के बारे में आप से ज्यादा जानते हैं. और फिर इन इंफॉर्मेशन्स का इस्तेमाल आप से खूब फायदा कमाने के लिए किया जाता है. इस प्रोसेस को डाटा माइनिंग कहा जाता है. इस का मतलब है कि यह लोग ऐसे तरीकों से आप से पैसा निकलवा लेते हैं जिनके बारे में आप सोच भी नहीं सकते.
लिंडस्ट्रॉम के मुताबिक आप को यह जान कर हैरानी होगी कि दुनियाभर में डाटा माइनिंग के जरिए 10,000 करोड़ डॉलर का बिजनेस किया जाता है.
मार्केटिंग इंडस्ट्री में डाटा माइनिंग को ‘ नॉलेज डिस्कवरी ‘ या ‘ कन्स्यूमर इनसाइट्स ‘ के तौर पर रिफर किया जाता है जो कि बहुत तेजी से आगे बढ़ने वाला एक ग्लोबल बिजनेस है. लिंडस्ट्रोम के मुताबिक इस बारे में कंपनियों का यह कहना है कि वह लोग कंज्यूमर्स के बारे में उनके काम और चीजों को खरीदने के पीछे उन के मोटिवेशन और अंडरस्टैंडिंग का पता लगाने की कोशिश करते हैं. और फिर यह अंदाजा लगाने के बाद कि कोई कंज्यूमर अपनी अगली शॉपिंग में क्या खरीदने वाला है, वह लोग उस लाइन की पहली कंपनी होने की वजह से कंज्यूमर को अपने बिल्कुल परफेक्ट ऑफर्स के साथ टारगेट करते हैं.
हम में से ज्यादातर लोग यह जानने के बावजूद कि हमारी पसंद, ना पसंद, आदतों और पर्सनल लाइफ के बारे में सारी डिटेल्स अब सीक्रेट नहीं रह गई हैं बल्कि तमाम दूसरे लोगों के पास भी पहुंच चुकी हैं, फिर भी हम लोग इस बारे में लापरवाह बने रहते हैं और अपने हर मूवमेंट और उठाए गए हर कदम को इग्नोर करते हैं. हम जानते हैं कि हमारे खरीदे गए हर सामान को एक कभी न मिटने वाले डिजिटल फुट प्रिंट पर लिखित तौर पर रिकॉर्ड किया जाता है . जो हमारी बाकी की जिंदगी तक हमारे साथ रहता है.
इस बारे में न्यू यॉर्क टाइम्स के मुताबिक यह कहा जाता है कि हम सब लोग ‘ पोस्ट प्राइवेसी सोसाइटी’ के मेम्बर्स हैं जहां पर हम इस बात से अनजान हैं कि ना जाने कितनी आर्गेनाइजेशन्स चुपके से हमारी निगरानी कर रही हैं. यहां इस बात को मेंशन करने की जरूरत नहीं है कि वह हमारी पर्सनल इंफॉर्मेशन्स के साथ क्या करती हैं या कैसे उन को स्टोर करती हैं और हमारे डोजियर्स यानी हमारी इंफॉर्मेशन की फाइल को किन के हाथों में बेच सकती हैं. और वह यह सब कर के कितना पैसा कमाती हैं . क्योंकि यह सारी बातें सच हैं.•
हम सब इस बात को जानते हैं कि हर बार जब भी हम अपने व्हेयर एबाउट के बारे में ट्विटर पर ट्वीट करते हैं या अपना फेसबुक प्रोफाइल अपडेट करते हैं या अपने क्रेडिट कार्ड से कोई चीज ऑन लाइन खरीदते हैं या अपने रिवॉर्ड कार्ड को किसी स्टोर में स्वाइप करते हैं. तो ऐसा कर के हम अपने बारे में तमाम इंफॉर्मेशन्स को पूरी दुनिया के सामने बाहर निकाल देते हैं. लेकिन हम लोग पूरी तरह से यह रिलाइज नहीं कर पाते हैं कि हर बार जब भी हम ऐसा करते हैं तो दरअसल हम कंपनियों और मार्केटियर्स को अपनी परमिशन दे रहे होते हैं कि वह हमारी इन्फॉर्मेशन्स को रिकॉर्ड, स्टोर, कंपाइल और एनालाइज कर के चाल बाजी से हमें मैनिपुलेट कर सकें और ज्यादा से ज्यादा चीजों की खरीदारी करने के लिए हमें बहका सकें.
इस किताब के आखिर में लिंडस्ट्रॉम ने अपना निष्कर्ष देते हुए हमें अपने वर्ड ऑफ माउथ मार्केटिंग के एक्सपेरिमेंट के बारे में बताया है . इस एक्सपेरिमेंट के मुताबिक लोगों को हायर कर के अलग- अलग प्रेस्टीजियस बस्तियों में भेजा गया. उन्होंने वहां की सक्सेस फुल फैमिलीज को अपने साथ एक खेल में शामिल कर लिया. जिस में उन फैमिलीज को उन ब्रांड को प्रमोट करना होता था जिन का वह लोग इस्तेमाल करते थे. इसके बाद उन्हें यह एनालाइज करना होता था कि उनके पड़ोसियों पर इसका कैसा असर होता है . और फिर सक्सेस फुल लोगों से उन्हीं प्रोडक्ट्स के बारे में सुन कर दूसरे लोग भी उन को खरीदने के लिए तैयार हो जाते थे. लिंडस्ट्रोम का कहना है कि प्रोडक्ट्स के सेल्स प्रमोशन में सबसे पावर फुल टूल असल में लोग खुद ही होते हैं. अगर आप अपने ब्रांड को वर्ड ऑफ माउथ से सपोर्ट कर सकते हैं तो ऐसा कर के आप दूसरे लोगों में अपने ब्रांड की पावर को बहुत पॉपुलर कर सकते हैं.
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कुल मिला कर
इस किताब को पढ़ने के बाद आपको मार्केटिंग की दुनिया के बारे में दिल को चीरने वाली कड़वी सच्चाई के बारे में सारे हालात मालूम होते हैं. और आप को एक नई कैटेगरी की ट्रिक्स, टेक्निक्स और गुमराह किए जाने के तरीकों के बारे में रियलाइज होता . जिन को 21वीं सदी में मार्केटिंग की दुनिया के छुपे हुए सब से पावर फुल लोग इंट्रोड्यूस करते हैं. और आप यह फील करने लगते हैं कि आपको ठगा जा रहा है. इसके बाद अब आप को मार्केटिंग और ब्रांडिंग की मायावी दुनिया के इन चौंकाने वाले फैक्ट्स के बारे में बहुत डिटेल में जानकारी हो गई है. जो कि यह हैं :
1 – नई खोज बीन से यह पता चलता है कि कैसे ऐडवर्टिज़मेंट करने वाले लोग और बड़े दुकानदार अपने फायदे के लिए कम उम्र वाले बच्चों को जान बूझकर खतरनाक ढंग से टार्गेट करते हैं . जिनमें ऐसे बच्चे भी शामिल हैं जो अभी मां के पेट में ही हैं और अपने पैदा होने का इंतजार कर रहे हैं.
2 – हेट्रोसेक्सुअल लोगों के बारे में यह पता चलता है कि जब ऐसे लोग सेक्शुअली प्रोवोकेटिव एडवरटाइजिंग यानी यौन इच्छाओं को भड़काने वाले विज्ञापनों को देखते हैं तो उन के एम आर आई ( मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेज) की स्टडी में बहुत चौंकाने वाले नतीजे सामने आते हैं. हेट्रोसेक्सुअल ऐसी कैटेगरी के लोग होते हैं जहां आदमी और औरत आपस में जिस्मानी संबंध बनाते हैं.
3 – कि कैसे मार्केट में बड़े और छोटे दुकानदार मिल कर ग्लोबल कंटेजियन, एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स और फूड कंटैमिनेशन यानी दुनिया भर में एक देश से दूसरे देश तक फैलने वाली छुआ छूत की बीमारी, बहुत ज्यादा गर्मी या सर्दी वाले मौसम और सूखे या नदियों में बाढ़ वाली सिचुएशन और खाने के सामानों के सड़ने का डर दिखा कर और इस बारे में लोगों के पागल पन का फायदा उठाने के लिए उन के अंदर एक दहशत का माहौल पैदा करते हैं.
4 – न्यूरो साइंस ने पहली बार इस बात के सबूत पेश किए हैं कि हम लोग अपने आई फोन और एंड्रॉयड सेल फोंस को इस्तेमाल करने के इतने ज्यादा आदी हो चुके हैं कि हम पर इन का नशा दूसरी नशीली दवाइयों और शराब से भी ज्यादा हावी हो सकता है.
5- कि कैसे तमाम कंपनियां चुपके से हमारे डिजिटल डेटा को चुराती हैं और फिर हमारी प्राइवेट जिंदगी के सब से ज्यादा छिपे हुए राज के बारे में पता लगा लेती हैं. इस के बाद वो इसी इंफॉर्मेशन का इस्तेमाल कर के हमे उन के खुद के फायदे के लिए टार्गेट करती हैं. और यह लोग ऐसा करने के लिए हमारे साइक्लोजिकल प्रोफाइल यानी हमारे रहन – सहन के तरीके के मुताबिक बिल्कुल सटीक विज्ञापन और ऑफर्स पेश कर देते हैं.
6 – कि कैसे कुछ कंपनियां होठों पर लगाए जाने वाले प्रोडक्ट्स के फार्मूले में जान बूझ कर नशीले केमिकल्स मिलाती हैं.
7 – कि 3 महीने तक चलने वाला गुरिल्ला मार्केटिंग एक्सपेरिमेंट क्या है ? जिस के बारे में खास तौर पर इस किताब में बताया गया है. जिस से हमें छुपे हुए परसूएडर्स यानी हमें बहलाने फुसलाने वाले लोगों में से सबसे ज्यादा पावर फुल लोगों के बारे में पता चलता है.
इस सब के अलावा इस किताब में हमें ब्रांडिंग की दुनिया के बारे में और भी बहुत सी अहम जानकारियां मिलती हैं. जिन को इस्तेमाल कर के हम अपने बिजनेस को बेहतर बना सकते हैं और आगे अपनी जिंदगी में बहुत तरक्की कर सकते हैं. अगर आप अपने प्रोडक्ट को वर्ड ऑफ माउथ से सपोर्ट कर सकते हैं तो आप ऐसा कर के लोगों में अपनी ब्रांड पावर को तेजी से फैला सकते हैं.