Bargain Fever Book Summary in Hindi

Bargain Fever

एक अच्छा बारगेन मिलने पर हमारे दिमाग में फ़ीलगुड हार्मोनडोपामाइनरिलीज होता है

Bargain Fever Book Summary in Hindi- जब बात सौदा करने की आती है तो आजकल के ग्राहक बेहद समझदार हो चुके हैं। आजकल डिस्काउंट इतनी आम चीज हो चुकी है कि कोई भी इंसान किसी भी चीज का फुल प्राइस नहीं देना चाहता है और कई पॉपुलर प्रोडक्टस इससे अछूते नहीं हैं। लेकिन स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी। मार्क एलवूड की डीपली रिसर्चड इस किताब ‘बारगेन फीवर’ की मानें तो डिस्काउंट का फेनोमेना बहुत ज्यादा पुराना नहीं है। मार्क के मुताबिक, यह सप्लाइ और डिमांड में होने वाले असंतुलन की वजह से पैदा हुआ है।

लेकिन बारगेन का कनेक्शन सिर्फ ईकनामिक्स तक ही सीमित नहीं है। इस किताब की मानें तो कस्टमर सिर्फ डिस्काउंटेड चीजों की तरफ आकर्षित ही नहीं होते हैं बल्कि डिस्काउंट उन्हें न्यूरॉलॉजिकल लेवल पर भी प्रभावित करते हैं, जिसकी वजह से वे कई बार उन चीजों को भी खरीद लेते हैं जिनकी उन्हें कोई खास जरूरत नहीं होती हैं।

इस किताब में आगे हम जानेंगे कि क्यों सेल पर चल रहे प्रोडक्टस को खरीदने से खुद को रोक पाना बेहद मुश्किल होता है। हम ये भी जानेंगे कि कैसे लगभग हर चीज पर भारी मात्रा में डिस्काउंट देने के बाद भी स्टोर्स अपने लिए फायदा कमा पाते हैं और कैसे इस डिस्काउंट सिस्टम का इस्तेमाल आप अपने फायदे के लिए कर सकते हैं।

हममें से ज्यादातर लोगों के साथ कभी-न-कभी ऐसा जरूर होता है कि हमें किसी चीज की कोई खास जरूरत नहीं होती है मगर फिर भी हम उस चीज को सिर्फ इसलिए खरीद लेते हैं क्योंकि वो सेल पर चल रही होती है।

लेकिन ऐसा क्यूँ होता है कि डिस्काउंट का नाम सुनते ही हम बहुत ज्यादा ऐक्साइटेड हो जाते हैं?

इस सवाल का जवाब हमारे दिमाग के काम करने के तरीके में ही छिपा हुआ है- अचानक डिस्काउंट मिलने की संभावना से हमारे दिमाग में डोपामाईन हार्मोन का फ़्लो ऐक्टिवेट हो जाता है जिसे हमारे दिमाग के रिवार्ड सिस्टम का एक हिस्सा माना जाता है। इस केमिकल के निकलने से हमें खुशी का एहसास होता है।

हालांकि जैसे ही हम डिस्काउंट की उम्मीद करने लगते हैं, हमारी यह इक्साइटमेंट फीकी पड़ने लगती है। यह एक एक्सपेरिमेंट से साबित हो चुका है। एक चूहे को मक्के के ढेर में छोड़ा गया जहाँ पर बीच में एक जगह पर एक-छोटी सी ट्रीट छुपाई गई थी। इसी दौरान चूहे के डोपामाईन लेवल्स को लगातार मानिटर किया गया।

चूहे ने जब पहली बार ट्रीट ढूंढ़ी तो उसके दिमाग में काफी बड़ी मात्रा में डोपामाइन का लेवल पाया गया। इसके बाद भी चूहे को कई बार ट्रीट मिली हालांकि बाद की ट्रीट्स के दौरान डोपामाइन का लेवल लगभग ज़ीरो पाया गया।

ऐसा क्यों? दरअसल ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एक बार सेंटर में ट्रीट मिल जाने के बाद चूहे को उम्मीद थी कि उसके दोबारा भी वहीं पे ट्रीट मिलेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो पहली बार ट्रीट मिलने पर चूहे को हैरानी हुई जबकि बाद में मिली ट्रीट्स से उसे कोई ज्यादा हैरानी नहीं हुई।

डिस्काउंट के प्रति हमारे दिमाग का रीस्पान्स भी कुछ इसी तरह होता है: डिस्काउंट्स के जरिए डोपामाइन फ़्लो में बढ़ोतरी करके हमारे दिमाग को उत्तेजित करने के लिए, हैरान होना और उम्मीदों का बढ़ना बेहद जरूरी है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आप अपने फेवरेट इलेक्ट्रॉनिक स्टोर में एक नया टीवी खरीदने जा रहे हैं और आप फुल प्राइज़ चुकाने की उम्मीद कर रहे हैं; दूसरे शब्दों में आप किसी भी तरह के डिस्काउंट की उम्मीद नहीं कर रहे हैं। अब जैसे ही आप स्टोर पहुंचते हैं तो आपको “50% छूट (off)” का होर्डिंग दिख जाता है। इस स्थिति में आपके दिमाग में डोपामाइन रिलीज होगा और आप उत्तेजित और बेहद खुश महसूस करेंगे।

क्यों कई बार डिस्काउंटेड चीजों को खरीदने से खुद को रोक पाना बेहद मुस्किल होता है?

अगर हमारे दिमाग से बहुत ज्यादा मात्रा में डोपामाइन निकलता है तो हमारे बिहेवियर पर हमारा नियंत्रण बेहद कम हो जाता है। इसके साथ ही साथ डोपामाइन की अधिकता से फायदे-और-नुकसान को तौलने वाला हमारे दिमाग का हिस्सा, जिसे “Dorsolateral Prefrontal Cortex (DLPFC)” कहते हैं, कम काम करने लगता है।

स्ट्रेस होने से भी दिमाग में डोपामाइन का फ़्लो बढ़ जाता है। तभी तो जब हम चिंता में होते हैं तो फालतू के डिस्काउंट और स्पेशल ऑफर्स की तरफ फालतू में खींचे चले जाते हैं क्योंकि इस वक्त हम सिर्फ फायदा ही देखते हैं नुकसान नहीं। और इस दौरान हम कई बार ऐसी चीजें भी खरीद लेते हैं जिनकी हमें जरूरत नहीं थी और हम उन्हें खरीदना भी नहीं चाहते थे।

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डिस्काउंट आज से करीब 150 साल पहले एक फ्रेंच डिपार्टमेंटल स्टोर में फिक्सड प्राइस का फेनोमेना आने के बाद शुरू हुए थे

डिस्काउंट्स की शुरुआत आज से करीब 150 साल पहले पेरिस में हुई थी जब वहाँ पे पहली बार La Borne Marche के नाम का एक डिपार्टमेन्टल स्टोर खुला था। 1869 में अपने बिजनेस का प्रचार करने के लिए इस स्टोर के मालिक, Aristide Baucicaut ने पहली बार प्राइस टैग को इन्ट्रोड्यूस किया- यह पहली बार था जब रीटेल प्राइसेस को फिक्स किया गया था। इससे पहले रीटेल को ऐसा बिजनेस माना जाता था जिसमें मोलभाव यानि bargaining जरूरी होता था।

फिक्स प्राइस का कान्सेप्ट लाने के बाद Baucicaut को एहसास हुआ कि अगर वे चीजों के दाम कम देते हैं तो इससे सीजन के आखिर में सारा सामान बिक जाएगा और कुछ भी सामान बचेगा नहीं। और इस तरह सेल (sale) की शुरुआत हुई।

रीटेल बिजनेस में डिस्काउंट बहुत ज्यादा पॉपुलर हो रहे थे। इसी दौरान हैरी गॉर्डन सैफ्रिज ने कुछ डिस्काउंट सेल्स Gimmicks को मार्केट में लाया जिनमें से बहुत सारी गिमिक्स को आज भी डिपार्टमेन्टल स्टोरस में इस्तेमाल किया जा रहा है।

सैफ्रिज का रीटेल करियर, 1885 में शिकागो मॉल से शुरू हुआ था जहाँ उन्होंने पहला “Bargain Basement” बनाया था। सैफ्रिज ने यह महसूस किया कि कस्टमर स्टोर के रेट से कम रेट वाली चीजें खरीदना चाहते हैं जिसकी वजह से उन्होंने एक विशेष बेसमेंट बनाया जो खासतौर पर “डिस्काउंटेड मर्चन्डाइसेज को बेचने के लिए बनाया गया था। उनका यह तरीका बेहद कामयाब हुआ।

एक दूसरी तरह की डिस्काउंट गिमिक भी उसी समय बनी, जो थेकूपन्स (Coupons). साल 1886 में कोका-कोला ने अपनी सेल्स बढ़ाने के मकसद से एक स्कीम निकाली जिसके तहत उन्होंने अपने ग्राहकों को फ्री कूपन्स बांटे जिनको एक्सचेंज करके वे एक कोक का ग्लास ले सकते थे। इसके पीछे कोका-कोला की मानसिकता यह थी कि अगर लोगों को एक बार कोका-कोला का टेस्ट करा दिया जाए तो निश्चित तौर पर वे इसे दोबारा खरीदने जरूर वापस आएंगे।

कूपन सिस्टम का फायदा कस्टमर और स्टोर्स दोनों ही उठा सकते हैं. क्या आपको पता है कि कैसे ज्यादातर स्टोर्स अपने कस्टमर्स को कूपन ऑफर करते हैं और उनके पैसे उन्हें वापस कर देते हैं? क्या वे उन्हें दोबारा मैन्यफैक्चर को वापस भेजते हैं और उनसे अपना पैसा वापस लेते हैं?

दरअसल, कूपन्स को रीडीम करने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसमें चार तरह पार्टीस् शामिल होती हैं:

सबसे पहले तो स्टोर्स सारे कूपन्स को कलेक्ट करता है। अब क्योंकि उन्हें अलग-अलग करने में काफी समय लगता है इसलिए स्टोर्स अपने जमा सारे कूपन्स को एक Sorting Company को भेजते हैं यह कंपनी अलग-अलग मैन्यफैक्चर्स के कूपन्स को अलग-अलग करती है। हालांकि इतने से ही कूपन रीडीम नहीं हो जाता। कौन-से कूपन्स वैलिड हैं और कौन-से नहीं, यह पता लगाने का काम मैन्यफैक्चर कंपनी एक अन्य कंपनी को देती है। इसके बाद मैन्यफैक्चर कंपनी चेक इशू करती है।

कई लोगों को लग सकता है कि कूपन्स को रीडीम करने में इतने सारे झंझट होते हैं, इसलिए उन्हें एक्स्प्लॉइट करना काफी कठिन होता है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है- कस्टमर और स्टोर्स दोनों ही कूपन सिस्टम का पूरा फायदा उठाते हैं।

मसलन, कई सारे कस्टमर अक्सर ‘एक्स्ट्रीम कूपनिंग’ करते हैं। ऐसे लोग कूपन के जरिए जितना हो सके अपनी शॉपिंग कॉस्ट को वापस पाने की कोशिश करते हैं और डिस्काउंट सिस्टम को एक्स्प्लॉइट करने की कोशिश करते हैं। कुछ कस्टमर्स तो कूपन्स सिस्टम का इस हद तक फायदा उठाते हैं कि वे अपने शॉपिंग कॉस्ट को 90% तक कम करवा पाते हैं। मिसाल के तौर पर, अगर उन्होंने 1000 रुपए की शॉपिंग की है तो वे अपनी शॉपिंग के लिए सिर्फ 100 रुपए पे करते हैं यानि पूरे 90% की बचत। एक्स्ट्रीम कूपनिंग इस हद तक पॉपुलर हो गई है कि आप इंटरनेट पर इसे सिखाने वाली वेबसाईट्स, टूटोरियल्स, और कोर्सेस आसानी से ढूंढ सकते हैं।

सिर्फ कस्टमर्स ही कूपन सिस्टम का फायदा नहीं उठाते बल्कि रीटैलर्स को भी इससे काफी फायदा होता है। कई बार वे मैन्यफैक्चर्स को बिना यूज किये हुए कूपन्स लौटाते हैं और कुछ एक्स्ट्रा पैसा कमा पाते हैं।

एक वक्त ये प्रैक्टिस बहुत ही ज्यादा आम हो गई थी। एक बार एक कूपन मैन्यफैक्चरर ने एक ऐसा कूपन डिजाइन और डिस्ट्रिब्यूट किया जिसका कोई प्रोडक्ट ही नहीं था। उन्होंने ऐसा यह पता लगाने के लिए किया कि कौन-सा रीटैलर बिना यूज किये कूपन लौटा रहा

अगर कोई रीटैलर इन कूपन्स को लौटाता है तो इसका मतलब है कि वह कूपन सिस्टम को बुरी तरह लूट रहा है। यह योजना काफी सफल हुई- इससे पता चल पाया कि कुल कूपन्स में से ढाई प्रतिशत (2.5%) कूपन्स को स्टोर्स ने ही रीडीम किया था ना कि किसी वास्तविक ग्राहक ने। इससे कूपन सिस्टम में मची लूट का खुलासा हो पाया।

बड़े फैशन ब्रांडस सीक्रिटिव डिस्काउंट स्ट्रैटिजीस का इस्तेमाल करते हैं हालांकि कस्टमर्स को रीसेल के जरिए भी डिस्काउंट मिलता है

Bargain Fever Book Summary in Hindi- आजकल डिस्काउंट लगभग हर जगह मिलता है और इसका सबसे बड़ा कारण है- चीजों की सप्लाइ ज्यादा हो गई है और कस्टमर्स की डिमांड कम। दूसरे शब्दों में कहें तो चीजें बहुत ज्यादा हो गई हैं और डिमांड कम.

फिलहाल कुछ इंडस्ट्रीज थी जो इस से बची हुई थी। मसलन, हाई फैशन इंडस्ट्री को ही ले लीजिए। इसे दूसरी इंडस्ट्रीज़ के जैसे ओवरप्रोडक्शन का रिस्क नहीं झेलना पड़ता था।

हालांकि जब से हाई फैशन इंडस्ट्री में विस्तार होना शुरू हुआ है तब से आम लोगों के लिए प्रोडक्टस को पहले से ही स्टोर्स में उपलब्ध कराने के चक्कर में इस इंडस्ट्री ने भी डिस्काउंट स्ट्रैटिजी को अपनाना शुरू कर दिया है। हालांकि उनकी स्ट्रैटिजी काफी यूनीक है, जिसे “सीक्रेट सेल” कहा जाता है।

प्राडा, शनेल (Chanel) और अरमानी जैसे लग्जरी ब्रांडस आजकल पहले से काफी बड़ी मात्रा में प्रोडक्शन करते हैं ताकि उनके प्रोडक्टस बहुत सारे लोगों के लिए पहले से ही अवैलबल रहे। लेकिन इमैजिन कीजिए कि इन ब्रांडस ने कुछ ऐसे प्रोडक्टस बनाएँ हैं जो किसी वजह से बिक नहीं रहे हैं। इस स्थिति में स्टोर्स के बाहर से बड़ेबड़े शब्दों में “SALE” लिखकर सामान बेचना सही नहीं होगा क्योंकि इससे लग्जरी वर्ल्ड की इमेज पर विपरीत असर पड़ेगा।

दूसरी तरफ, एक सीक्रेट सेल ऑर्गनाइज़ करना ज्यादा बेहतर रहेगा जिसमें सिर्फ लॉयल कस्टमर्स को इन्वाइट किया जाए और उन्हें डिस्काउंटेड रेट्स में पुराना और हार्ड-टु-शिफ्ट स्टॉक बेचा जाए, जिससे सामान का सामान बिक जाएगा और साथ ही साथ कस्टमर को ऐलीट कस्टमर होने की खुशी भी होगी।

लेकिन क्या होगा अगर आप ऐलीट कस्टमर ग्रुप का हिस्सा नहीं हैं? खैर, आपके पास एक दूसरा रास्ता है जिसके जरिए आप लग्जरी ब्रांडस की चीजें डिस्काउंटेड रेट्स में खरीद सकते हैं। और वो तरीका है- सीक्रिट सेल से खरीदी गई चीजों की रीसेल में हिस्सा लेकर।

आजकल क्योंकि बहुत सारे लोगों को नई चीजों को खरीदने की क्रैविंग होती है इसलिए ब्रांडेड चीजों को सेकंड हैन्ड या फिर ऑनलाइन स्टोर्स से खरीदना एक अच्छा विकल्प बन गया है।

जिन कस्टमर्स को ऐलीट सेल में बुलाया जाता है; अक्सर वे अपनी जरूरत से ज्यादा चीजें खरीद लेते हैं और फिर उन्हें ebay जैसी रीसेल कर देते हैं। और यही वह तरीका है जिसका इस्तेमाल करके आजकल आम लोग भी बड़े-बड़े ब्रांडस के “इट बैग्स (It Bags)” को खरीद पाते हैं।

डिस्काउंट्स के प्रति लोगों का नजरिया पूरी दुनिया में एक जैसा नहीं है हालांकि यह फर्क अब कम हो रहा है. अब तक हम जान चुके हैं कि डिस्काउंट कैसे बनें; आप उनका पूरा फायदा कैसे उठा सकते हैं

और वे हमारे दिमाग को किस तरह प्रभावित करते हैं? लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हम बारगेन फेनोमिना को जनरलाइज़ कर सकते हैं? क्या ये पूरी दुनिया में एक जैसा है?

दरअसल ऐसा नहीं है। जिन देशों में Individualism पर ज्यादा फोकस किया जाता है और जो देश Collective Culture की तरफ ज्यादा झुके होते हैं, इन दोनों तरह के देसों में डिस्काउंट के प्रति अलग-अलग तरह का रवैया देखने को मिलता है।

उदाहरण के लिए, इंडिया को ही ले लीजिए जहाँ का कल्चर बहुत ज्यादा कलेक्टिव है। यहाँ मौजूद ज्यादातर लोग खुद को एक खास ग्रुप का हिस्सा मानते हैं और उनकी व्यक्तिगत मेम्बर्शिप के हिसाब से उन्हें ट्रीट न करने पर वे अक्सर बुरा नहीं मानते हैं। इंडियंस जब शॉपिंग करते हैं तो उन्हें लगता है कि अलग-अलग ग्रुप के लोगों को एक ही चीज के लिए अलग-अलग रेट चुकाना सही है। सिर्फ एक ही ग्रुप के लोगों के लिए रेट एक जैसे होने चाहिए।

हालांकि अमेरिका जैसे एक individualistic देश में नजरिया बिल्कुल अलग है: एक अमेरिकन सिटिज़न कभी नही चाहेगा कि किसी व्यक्ति को डिस्काउंट मिले जबकि उसे उसी प्रोडक्ट के लिए पूरा रेट चुकाना पड़े।

धोकाधड़ी का डर ही वह वजह है जिसके कारण बहुत सारे देशों ने बारगेनिंग के लिए नियम-कानून बना लिए हैं। मिसाल के दौर पर, साल 2001 तक जर्मनी में कूपन्स पर प्रतिबंध था। हालांकि लगातार सिमटती दुनिया से रवैयों का यह फासला छोटा होता जा रहा है।

उदाहरण के लिए, चीन पहले एक बहुत ज्यादा कलेक्टिव कल्चर वाला देश हुआ करता था और यहाँ के लोग अपने ग्रुप को सबसे ज्यादा अहमियत देते थे। हालांकि पिछले कुछ सालों में उनके इस रवैये में काफी बदलाव आया है। चीन की One-Child Policy और आर्थिक क्रांति के कारण वहाँ के लोग अमीर होते जा रहे हैं और उनमें individualism बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

चीन में फिलहाल अमीरों के बीच अपनी अमीरियत का दिखावा करने और खुद को दूसरों से अलग दिखाने का ट्रेंड चल रहा है जिसकी वजह से अमीर चाइनीज ब्रांडेड चीजों को जानबूझकर फुल प्राइस पर खरीद रहे हैं। उदाहरण के लिए, ग्रेट ब्रिटेन घूमने आया एक चाइनीज व्यक्ति अपनी विज़िट के दौरान औसत तौर पर 2,660 डॉलर्स खर्च करता है। यह आंकड़ा दूसरे देशों के टुरिस्ट के मुकाबले करीब 3 गुना ज्यादा है।

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कंपनी और कस्टमर्स दोनों के लिए डिस्काउंट घाटे का सौदा साबित हो सकता हैं

शॉपिंग पर छूट मिलना एक बेहद ही आकर्षक चीज है। लेकिन क्या आपने कभी डिस्काउंट से होने वाले नुकसान के बारे में सोचा है? सौदेबाजी की दुनिया में कंपनी और कस्टमर दोनों को ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ग्लोबल मार्केट में सरवाइव करने वाली कंपनियों के लिए बारगेन्स से हाथ मिलाने का सीधा-सा मतलब हैअपनी बिजनस स्ट्रैटिजीस को लगातार अजस्ट करते रहना। उदाहरण के लिए, उन्हें डिस्काउंट से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के नए-नए तरीके खोजने पड़ते हैं।

उदाहरण के लिए ट्रैवल इंडस्ट्री को ही ले लीजिए। होटेल्स ने यह मान लिया है कि राइवल कंपनीज से प्रतिस्पर्धा करने और अपने ग्राहकों की डिस्काउंट की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए उन्हें बहुत जल्दीजल्दी अपने प्राइसेस अजस्ट करने की जरूरत है।

आपने भी यह बात नोटिस की होगी कि होटेल्स अक्सर डिस्काउंट के पैसे को किसी ना किसी तरह वापस ले ही लेते हैं। इसके लिए या तो वे वाईफाई कनेक्शन के लिए आपसे एक्स्ट्रा पैसे वसूल करते हैं या फिर आपके कमरे में एक महंगा मिनिबार फ्रिज लगा देते हैं।

कस्टमर्स को भी बारगेन से काफी नुकसान होता है क्योंकि बारगेनिंग करने के लिए उन्हें हर समय अलर्ट रहना पड़ता है जिससे उनकी काफी ऊर्जा खर्च हो जाती है। साथ ही साथ बहुत सारे प्रोडक्टस के दामों के बीच तुलना करने से उनका बहुत सारा वक्त भी जाया होता है। आजकल क्योंकि हम अपना बहुत सारा समय, सबसे बेस्ट डील पाने के लिए, अलग-अलग स्टोर्स और कम्पनियों के दामों को चेक करने में बिताते हैं, इसलिए हमें एक आरामदायक शॉपिंग इक्स्पीरीअन्स नहीं मिल पाता है।

मिसाल के तौर अगर आपको पता चलता है कि जो शर्ट आपने पिछले हफ्ते खरीदी थी, उसपे आज एक अन्य स्टोर में 50% का डिस्काउंट चल रहा है, तो बेशक आप खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे। और शायद आप खरीदी हुई शर्ट को वापस करवाने की कोशिश भी करें ताकि आप दूसरे स्टोर से वही शर्ट 50% डिस्काउंट के साथ खरीद सके।

हालांकि कुछ कंपनियां इस बात पर काफी ध्यान देती हैं कि उनके ग्राहकों का शॉपिंग इक्स्पीरीअन्स थका देने वाला न हो। और आगे में हम यही जानने वाले हैं कि कैसे इन कम्पनीस ने अपनी मार्केटिंग स्ट्रैटिजी से डिस्काउंट को पूरी तरह बेदखल कर दिया है।

कुछ कंपनियां अपने प्रोडक्टस के दामों को नियंत्रित करके और डिस्काउंट न देकर खुद को दूसरों से अलग खड़ा करती हैं. अब तक इस किताब में हम आज की डिस्काउंट भरी दुनिया के बारे में काफी कुछ जान चुके हैं। और आप में से कई सारे लोगों को लग सकता है कि आज की इस मॉडर्न दुनिया में जो कंपनी डिस्काउंट नहीं देती है उसए जरूर अपने बिजनस को चलाने में दिक्कतें होती होंगी।

दरअसल कुछ कंपनियां डिस्काउंट नहीं देती हैं बल्कि वे अपने प्रोडक्टस के दामों को हर समय करीब-करीब एक जैसा ही रखती है ताकि उनके कस्टमर्स को कभी भी किसी भी तरह का कोई पछतावा न हो।

यहाँ तक कि कई सारी कंपनियों ने खुद को यूनीक दिखाने के लिए डिस्काउंट्स को पूरी तरह से बैन कर दिया है। इसके बजाय वे अपने दामों को मेन्टेन करने पर ज्यादा ध्यान देती हैं। हालांकि ऐसा करने के लिए इन कंपनियों को अपने प्रोडक्शन को कंट्रोल करना होता है और वे ऐसा तभी कर पाएंगी जब उनकी खुद की फैक्ट्रीज हों, ना कि उन्होंने किराये पर ली हों।

जिन कंपनियों, जैसे- Louis Vuitton, की अपनी फैक्ट्रीज़ होती हैं, उन्हें दूसरी कंपनियों की तुलना में काफी अच्छा फायदा मिलता है। अगर उन्हें लगता है कि कोई प्रोडक्ट कर बिक रहा है तो दूसरी कंपनियों की तरह डिस्काउंट देने के बजाय, ये कंपनियां अपनी प्रोडक्शन सेल्स को कम प्रॉडक्ट्स बनाने का ऑर्डर दे देती हैं।

इसके अलावा डिस्काउंट्स न देकर ये कंपनियां कस्टमर की नजर में खुद की एक खास जगह बना लेती हैं। क्योंकि ज़्यादातर कस्टमर्स को लगता है कि जो चीज जितनी महंगी होती है वह उतनी ही अच्छी क्वालिटी की होती है।

ऐसी ही एक कंपनी है- एप्पल (Apple). इसके प्रोडक्टस के दाम इसके competitors के दामों से कई गुना ज्यादा होते हैं, फिर भी एप्पल के लगभग सारे प्रोडक्टस बेस्टसेलर साबित होते हैं। और अपने दामों में कटौती न करने के बावजूद भी इसके कस्टमर कंपनी के प्रति लॉयल रहते हैं।

“लोग महंगी चीजों को अच्छी क्वालिटी का मानते हैं” यह बात स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुए एक प्रयोग में साबित हो चुकी है। इस प्रयोग में प्रतिभागीयों को अलग-अलग शराबों के टैस्ट को रेट करने के लिए कहा गया।

प्रतिभागियों को बताया गया कि ये वाइन्स 5 डॉलर से लेकर 90 डॉलर के रेंज की हैं। हालांकि हकीकत में वे केवल तीन अलग-अलग तरह की वाइनें ही थी। और रिसर्चस को असल-में पता भी नहीं था कि उन वाइन्स का असली दाम क्या है!

और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ज्यादातर प्रतिभागियों को 90 डॉलर वाली शराब का स्वाद दूसरी सस्ती शराब के मुकाबले ज्यादा बेहतर लगा। बावजूद इसके कि इन शराबों के टैस्ट में कुछ खास अंतर नहीं था।

इससे यह साबित होता है कि जो कंपनी अपने प्रोडक्टस के दामों को महंगा और फिक्स रखती है, उन्हें अक्सर हाई क्वालिटी और दूसरों से अलग माना जाता है।

डिस्काउंट्स से भरी इस दुनिया में स्टोर्स अपने खुद के ब्रांडआइटम्स सेल करके और डिस्काउंट्स को पर्सनलाइज़ करके अपने बिजनेस को कामयाब बना सकते हैं

Bargain Fever Book Summary in Hindi- फिज़िकल स्टोर्स के लिए ऑनलाइन-शॉपिंग के ट्रेंड ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं क्योंकि आजकल स्टोर्स में चीजों को देखने के बाद लोग उन्हें घर पर ऑनलाइन चेक करना पसंद करते हैं ताकि उन्हें मिलने वाली डील सबसे बेस्ट हो।

ऐसा करने से एक तो उन्हें सीधे सेल्सपर्सन से उस प्रोडक्ट के बारे में डायरेक्ट अड्वाइस और प्रोडक्ट का इक्स्पीरीअन्स मिल जाती है। दूसरा उन्हें ऑनलाइन प्राइसेस का फायदा भी मिल जाता है। यह प्रोसेस इतनी पॉपुलर हो चुकी है कि इसका अब एक नाम भी हैशोरूमिंग (Showrooming).

लेकिन इस तरह से स्टोर्स को नुकसान कैसे होता है?

स्टोर्स को अब यह एहसास हो चुका है कि खुद के ब्रांड-आइटम्स बेचने से शोरूमींग को रोका जा सकता है। क्योंकि स्टोर्स के खुद के ब्रांड आइटम्स ऑनलाइन को उपलब्ध होंगे नहीं, जिससे लोगों को उन्हें खरीदने स्टोर आना ही पड़ेगा। यहाँ तक कि Kohl’s और Macy’s जैसे फैशन स्टोर्स को अपनी करीब 40% इनकम खुद के ब्रांड-प्रोडक्टस से ही मिलती है।

हालांकि सिर्फ फिज़िकल स्टोर्स ही नहीं हैं जिन्हें अपने कस्टमर्स को वापस पाने के लिए नए-नए तरीके ईजाद करने पड रहे हैं बल्कि रिटेलर्स को भी नई ऑनलाइन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना पड रहा है ताकि उनका बिजनेस फलता-फूलता रहे। साथ ही साथ उन्हें यह भी एहसास हो रहा है कि इन्डविजुअल कस्टमर को खास डिस्काउंट ऑफर करने से वे ज्यादा प्रोडक्टस बेच सकते हैं। और शायद डिस्काउंट का भविष्य कुछ इसी तरह का होने वाला है।

ज्यादातर ऑनलाइन स्टोर्स अपने प्रोडक्टस को कई महीनों पहले से बिक्री के लिए रेडी रखते हैं और अगर उनका कोई प्रोडक्ट बिकता नहीं है तो वे उसका प्राडक्शन बंद नहीं करते हैं। बल्कि इसके बजाय वे कुछ और ही करते हैं.

अगर ऑनलाइन स्टोर्स को लगता है कि किसी खास कलर की शर्ट, मान लेते हैं कि वो कलर ग्रीन है, नहीं बिक रही है। तो जिन लोगों ने किसी दूसरे कलर की शर्ट अपने शॉपिंग कार्ट में रखी है, वे उन लोगों को एक मैसेज दिखाते हैं, जिसमें लिखा होता है – “अगर आप इसके साथ ग्रीन कलर की शर्ट भी खरीदते हैं तो आपको 30% ऑफ दिया जाएगा।” और इस तरह बहुत सारे लोग डिस्काउंट के चलते ग्रीन कलर की शर्ट को भी बेझिझक खरीद लेते हैं। और इस तरह

ऑनलाइन स्टोर्स का कम बिकने वाला माल भी आसानी से बिक जाता है।

इस personalized तरीके का फायदा यह है कि अगर कोई व्यक्ति पहले ही ग्रीन कलर की शर्ट को सिलेक्ट कर लेता है तो उसे डिस्काउंट का यह मैसेज नहीं दिखता है। जिससे उसे शर्ट के पूरे पैसे चुकाने पड़ते हैं और ऑनलाइन स्टोर की इनकम बढ़ती है।

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कुल मिलाकर

डिस्काउंट्स का जन्म उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में हुआ था जब एक डिपार्टमेन्टल स्टोर ने अपने प्रोडक्टस के दाम फिक्स कर दिए और सप्लाइ और डिमाँड़ में असंतुलन होने लगा। आज हम एक डिस्काउंट से भरी दुनिया में जी रहे हैं जिसका मतलब है कि स्टोर्स

और रिटेलर्स को सर्वाइव करने के नए-नए तरीके ढूंढने पड़ रहे हैं। साथ ही साथ अच्छा डिस्काउंट मिलने पर बहुत सारा सामान एक साथ न खरीदने की कला भी कस्टमर को सीखनी चाहिए।

अपनी इच्छा पर सवाल उठाकर इम्पल्सिव परचेसेस को कम करें

आज से जब कभी भी आपको कहीं भी “SALE” लिखा हुआ मिले तो खुद से कहिए कि आपकी जो शॉपिंग करने की इच्छा हो रही है वह आपके दिमाग में रिलीज हो रहे डोपामाइन की वजह से हो रही है। इस बात को ध्यान में रखकर फैसला कीजिए कि क्या आपको सच में उस महंगी नई जैकेट या उन फिर डिजाइनर सनग्लासेस की जरूरत है?

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