Atomic Accidents Book Summary in Hindi

Atomic Accidents

रेडिएशन और रेडियोएक्टिव एलिमेंट की खोज दिलचस्प और खतरनाक दोनों थी

Atomic Accidents Book Summary in Hindi- जब जापान में भारी भूकंप और सुनामी आई थी, तो इसका कोस्टल न्यूक्लियर प्लांट फुकुशिमा अफसोसजनक तरीके से बर्बाद हो गया था. इस हादसे की वजह से भारत में जो लोग न्यूक्लियर पावर के बारे में अच्छे ख्याल रखते थे रातों-रात उनका ख्याल बदल गया. यूं तो न्यूक्लियर पावर के हिस्ट्री में बहुत सारे हादसे हुए हैं लेकिन यह हादसा वक्त के हिसाब से हाल फिलहाल का है. इस तरह के हादसे कम ही होते हैं, लेकिन यह अचानक से लोगों के खयाल बदलने की ताकत रखते हैं. एक दौर था जब न्यूक्लियर पावर को बस एक तरह की एनर्जी समझा जाता था जो “ग्रीनरफ्यूचर”ला सकती थी. लेकिन फुकुशिमा के हादसे के बाद लोगों का यह ख़यालल पूरी तरीके से बदल गया. एटॉमिक एनर्जी के इतिहास के बारे में जानने के दौरान आपको यह भी पता चलेगा कि कैसे डेवलपमेंट के एक लंबे दौर ने सोसाइटी को न्यूक्लियर एनर्जी के इस्तेमाल का स्टेबल तरीका मुहैया कराया. न्यूक्लियर एक्सपेरिमेंट की हिस्ट्री के बारे में जानकर शायद हम एक ऐसा फ्यूचर देखने के काबिल हो जाए जिसमें इस पावर को लेकर डर नहीं बल्कि इसका सही इस्तेमाल शामिल हो. इस समरी में आप जानेंगे, कि कैसे दशकों की टेक्नोलॉजी ने फुकुशिमा प्लांट की डेस्टिनी का फैसला लिया? क्या चेर्नोबिल में होने वाला हादसा इंसानों की गलती की वजह से हुआ था, और कैसे न्यूक्लियर वेस्ट के लिए 3000 नहीं बल्कि 300 साल “सेफ”नंबर हो सकता है?

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तो चलिए शुरू करते हैं!

19वीं सदी के आखिरी दौर में निकोला टेस्ला ने अचानक से रेडिएशन की खोज की. उसके बाद 1896 में बहुत सारी रिसर्च और एक्सपेरिमेंट के बाद विल्हेम रॉन्टजेन ने रेडिएशन पर पहला पेपर पब्लिश किया. उसके बाद दुनिया भर के साइंटिस्ट नए फिनोमिना पर रिसर्च करने लगे, साइंटिस्ट मैरी और पियरे क्यूरी ने रेडियोएक्टिव एलिमेंट की खोज की जिसे उन्होंने रेडियम कहा. लेकिन इस रेडियम की तह के नीचे एक डार्क सीक्रेट था, इसका खतरनाक नेचर. रेडियम रिसर्च करने वाले इसके खतरनाक असर के बारे में नहीं जानते थे. रेडियम के खतरनाक असर की चपेट में किसी न किसी तरीके से वह सभी आने वाले थे. बार-बार रेडिएशन के कांटेक्ट में आने की वजह से टेस्ला की हेल्थ खराब होने लगी. जहां एक तरफ थॉमस एडिसन के असिस्टेंट की मौत हो गई थी वही पियरे क्यूरी बार-बार रेडिएशन के दायरे में आने की वजह से कमजोर पड़ती जा रही थी. रेडिएशन के लिए नया मेडिकल एप्लीकेशन खोज लिया गया था और इसके खतरे को ना जानने की वजह से इस नए एप्लीकेशन का इस्तेमाल करने वाले जरूरत भर प्रिकॉशन नहीं लेते थे. बीमारी के इलाज में एक्सरे मशीन का इस्तेमाल भरपूर होने लगा, जो टेक्नीशियन लगातार इसके कांटेक्ट में आते थे उन्हें कैटारैक्ट और ल्यूकेमिया जैसी तकलीफ होने लगी. आज इस फील्ड में काम करने वाले लोग अपने आपको रेडिएशन की चपेट में आने से बचाने के लिए जरूरत भर प्रिकॉशन का इस्तेमाल करते हैं.

रिस्क के अलावा रेडिएशन के बहुत सारे फायदे भी थे कैंसर के इलाज के लिए रेडियम थेरेपी, जिसमें ट्यूमर को रेडियम के कांटेक्ट में लाया जाता है, बहुत असरदार साबित हुई. वहीं दूसरी तरफ रेडियम की हीलिंग पावर बहुत पॉपुलर थी, जिसका फूल्हार्डी एंटरप्रेन्योर्स ने फायदा उठाने की कोशिश की, अक्सर जिसके खतरनाक नतीजे हुए. बिजनेसमैन विलियम बैले ने एक ऐसी दवा बनाई जिसमें ढेर सारे पानी के साथ थोड़ा सा रेडियो एक्टिव एलिमेंट शामिल किया गया. उनकी “रेडिथर”नाम की टॉनिक तब तक बहुत पॉपुलर थी जब तक लोग बीमार होना शुरू नहीं हो गए, मिलेनेयर ईबेन मैकबर्नी बायर्स, जिन्होंने यह टॉनिक भरपूर तरीके से पी थी, उनकी हड्डियां कमजोर हो गईं, और इतना ज्यादा कि उनका जबड़ा पूरी तरीके से तबाह हो गया. इस तरह के हादसों ने रेडिएशन को लेकर लोगों की सोच बदल दी और आज के दौर में यह डर की वजह है, लेकिन यह डर तब और गहरा गया जब साइंटिस्टों ने रेडियम के दूसरे इस्तेमाल की खोज की, न्यूक्लियर बम.

न्यूक्लियर बम के लिए की गई रिसर्च बहुत बड़े लेवल का एक्सपेरिमेंट था जिस के नतीजों के बारे में कुछ नहीं मालूम था

Atomic Accidents Book Summary in Hindi- 1930 के आखिरी दौर तक, पब्लिक को रेडिएशन के खतरे और जान लेने कि इसकी ताकत के बारे में मालूम हो गया था. इन खतरों के बावजूद एटॉमिक बम बनाने की वकालत करते हुए कहा गया कि यह वर्ल्ड वॉर को कम से कम नुकसान के साथ खत्म करने का इकलौता तरीका है. हालांकि एटॉमिक बम बनाने वाला पहला देश यूनाइटेड स्टेट था, लेकिन जर्मन साइंटिस्ट्स भी कुछ खास पीछे नहीं थे. यूनाइटेड स्टेट के साइंटिस्टों ने वाशिंगटन और न्यू मैक्सिको के सीक्रेट लैबोरेट्रीज में काम किया, अमेरिका ने इस प्रोजेक्ट के लिये उस दौर के सबसे बेहतरीन साइंटिस्ट्स को हायर किया था. अल्बर्ट आइंस्टाइन सहित इनमें से बहुत सारे लोग नाजियों की कैद से भागे हुए थे. जर्मनी में, नाजियों ने यूनिवर्सिटी ऑफ लीप्ज़िग में एटॉमिक प्रोग्राम शुरू किया. जिसे वर्ल्ड क्लास न्यूक्लियर साइंटिस्ट और नोबेल प्राइज विनर वार्नर बर्ग लीड कर रहे थे, उन्हें भी बाद में नाज़ियों के चंगुल से भागना पड़ा. इस काम में काबिल से काबिल लोगों के जुड़े होने के बावजूद दोनों ही ग्रुप को न्यूक्लियर बम बनाने की इस रेस में बर्बादी देखनी पड़ी. अमेरिका के दो साइंटिस्ट हैरी डाघलियन और लुईस एलेक्जेंडर स्लॉटिन न्यूक्लियर बम के लिए रेडियोएक्टिव एलिमेंट पर काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने जरूरत भर प्रिकॉशन नहीं लिया. नतीजतन उन्हें अपनी जान गवानी पड़ी, यूएस न्यूक्लियर बम प्लान में सिर्फ इन्हीं दोनों की जान का नुकसान उठाना पड़ा था. वहीं दूसरी तरफ, जब टेस्ट के दौरान जर्मन साइंटिस्ट कोई न्यूक्लियर रिएक्शन कर रहे थे, तो लेपजिग यूनिवर्सिटी में आग लग गई थी, जिसके चलते कई साइंटिस्टों की मौत हो गई थी. नतीजतन यूनाइटेड स्टेट पहले न्यूक्लियर बम बनाने में कामयाब हो गया, फिर भी बहुत सारे ऑफिशियल्स इससे होने वाले नुकसान को लेकर तैयार नहीं थे.

जब जापान पर न्यूक्लियर बम गिराया गया तब साइंटिस्ट देखकर हैरान थे कि 12 मील के अंदर मौजूद, जल जाने वाली हर चीज में

आग लग गई थी. हालांकि साइंटिस्ट्स को मालूम था कि रेडिएशन से कितना नुकसान हो सकता है लेकिन बम की थर्मल एनर्जी से होने वाले नुकसान का उन्हें अंदाजा नहीं था. 83000 जापानियों की मौत हो गई थी, बहुत सारे लोग बाद में रेडिएशन की वजह से होने वाले कैंसर में मारे गए. वर्ल्ड वॉर सेकंड के दौरान न्यूक्लियर एनर्जी से होने वाले नुकसान को दुनिया के सामने खोल कर रखा गया. बर्बादी की ताकत को बाद में कैसे मैनेज किया गया?

मलेटरी एक्सरसाइज के दौरान न्यूक्लियर बम से होने वाले हादसों की तादाद बहुत ज्यादा थी. जापान में हुए नुकसान और बर्बादी को देखते हुए हम लोगों को लगता है कि आज के दौर में न्यूक्लियर बम पर बहुत ध्यान से नजर रखी जा रही है. लेकिन ऐसा नहीं है. असल में न्यूक्लियर बम की वजह से बहुत सारे हादसे हये हैं. आज तक न्यूक्लियर बम की वजह से लगभग 65 हादसे रिकॉर्ड किए गए हैं, और यह आंकड़े सिर्फ यूनाइटेड स्टेट के बम के हैं. मिसाल के तौर पर, न्यूक्लियर वेपन ले जा रहे प्लेनों ने गलती से उन्हें ड्रॉप कर दिया या फिर न्यूक्लियर बम से भरे प्लेन क्रैश हो गए. लंबे वक्त तक यूएस मिलिट्री में ऐसे हादसों को छुपाए रखा लेकिन धीरे धीरे यह हादसे पब्लिक के सामने आ गए. इनमें से बहुत सारे हादसे इंसान की छोटी-छोटी गलतियों की वजह से हुए थे, जिनके चलते बहुत सारे खतरनाक मंज़र ने जन्म लिया. कुछ ऐसे हादसे जिनमें मिलिट्री ने गलती से सिविलियन के घरों पर बम गिरा दिया था जिनमें लोग चोटिल तो हुए लेकिन मारे नहीं गए, और साउदर्न ग्रीनलैंड में एक B-52 बॉम्बर क्रैश हुआ. न्यूक्लियर बॉम्ब के हर तरीके के डिजाइन की वजह से फुल स्केल न्यूक्लियर डिजास्टर नहीं हुआ. डिजाइन इंजीनियर को 1945 में जापान में गिराए गए बम से पहले गलती से ड्रॉप हो जाने वाले बम से होने वाली बर्बादी का अंदाजा था.

न्यूक्लियर बम के न्यूक्लियर रिएक्शन करने के लिए बहुत सारे मैकेनिज्म का एक्टिवेट होना जरूरी है, जोकि एक्सरसाइज या ट्रासपोर्टेशन के दौरान बंद रहता है. हालांकि बहुत सारे हादसे में कोई बहुत नुकसान नहीं होता लेकिन यह अपने पीछे रेडियोएक्टिव मैटेरियल छोड़ जाते हैं जिन्हें साफ किए जाना बहुत जरूरी है. इन स्टोरीज से पता चलता है कि न्यूक्लियर बम से होने वाले हादसों से बचा तो नहीं जा सकता लेकिन इसके खास तरह के डिजाइन बर्बादी से बचा सकते हैं. इनमें हैरत वाली बात यह है कि बहुत सारे न्यूक्लियर पावर प्लांट इन गाइडलाइंस को फॉलो नहीं करते.

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चेर्नोबिल में हुई बर्बादी के पीछे गलत न्यूक्लियर पावर प्लांट डिजाइन और ह्युमन ऐरर थी

Atomic Accidents Book Summary in Hindi- 1970 में इंजीनियर इस बात को लेकर कॉन्फिडेंट थे कि न्यूक्लियर पावर प्लांट में किसी भी तरह का बड़ा हादसा नहीं होगा. लेकिन 1986 में चेर्नोबिल में हुये हादसे ने उन्हें गलत साबित कर दिया. यह बर्बादी रूटीन सेफ्टी ऑपरेशन के दौरान हुई थी. उस वक्त एडवांस न्यूक्लियर फिजिक्स की जानकारी रखने वाला कोई भी टेक्नीशियन ड्यूटी पर नहीं था. इससे भी ज्यादा यह की स्टाफ के किसी मेंबर को नहीं पता था की हादसा हो जाने पर क्या करना चाहिए. फिज़िसिस्ट अनातोली डायटलव के फैसले ने उनकी टीम को और भी गलतियां करने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने वहां पर मौजूद लोगों को ऑफिशियल इमरजेंसी प्रोसीजर यानी कोई भी हादसा हो जाने पर क्या किया जाना चाहिए उस प्रोसेस, को नजरअंदाज करने के लिए कहा जिसके चलते हालात पूरी तरह हाथ से निकल गये. इस बर्बादी में पॉलिटिक्स की भी हिस्सेदारी थी. सोवियत इंजीनियर पूरी दुनिया से अलग अकेले काम कर रहे थे. सोवियत यूनियन बहुत ही खुफिया नुमा तरीके से अपनी टेक्नोलॉजी डिवेलप कर रहा था, वेस्ट के एक्सपर्ट्स से किसी भी तरह की जानकारियां शेयर नहीं की जाती थी. नतीजतन, चेर्नोबिल प्लांट आउटडेटेड टेक्नोलॉजी की मदद से बनाया गया था, जिसमें कई तरह की दिक्कतें थीं. मिसाल के तौर पर, ग्रेफाइट मॉडरेटेड लाइट वाटर मॉडल जिसके तहत यह प्लांट बनाया गया था उसे वेस्टर्न कंट्रीज पहले ही एक्सपायर कर चुकी थी. इससे भी बुरा यह हुआ कि सोवियत ने रिएक्टर के ब्रेकडाउन की न्यूज़ नहीं फैलने दी. 1986 तक सरकार ने इससे जुड़ी सभी जानकारियों को क्लासिफाइड डॉक्यूमेंट के तहत रखा था, उन्हें डर था कि अगर यह जानकारियां पब्लिक तक पहुंच गई तो यह उन में खौफ पैदा कर देंगी. ना सिर्फ चेर्नोबिल के आसपास के इलाके बर्बाद हुए, बल्कि रेडियोएक्टिव मैटेरियल हवा से उड़कर यूरोपीयन कंट्रीज की तरफ चले गये, जिससे मिट्टी में रेडिएशन की तादाद बढ़ गई और वेजिटेशन यानी वनस्पति इम्प्योर हो गई. हालांकि उसके बाद न्युक्लियर एनर्जी की वजह से चर्नोबिल जितना बड़ा हादसा नहीं हुआ, एक्सपोर्ट्स का मानना है कि शायद वह अपनी तरह का आखिरी हादसा था.

फुकुशिमा प्लांट अर्थक्वेक वाले एरिया में बनाकर, बर्बादी की नींव रखी गई. जापान के पेसिफिक कोस्ट के अर्थक्वेक वाला एरिया होने के बावजूद ऑफिशियल ने इसे जापान के दो न्यूक्लियर पावर प्लांट के लिए बेस्ट जगह माना, फुकुशिमा -1 और फुकुशिमा-2.

कई ऐसी वजह है जिसके चलते यह कहा जा सकता है कि फुकुशिमा की बर्बादी पहले से डिसाइडेड थी. जापानी सरकार और टोक्यो इलेक्ट्रिक कंपनी दोनों ने ही नेचर की तरफ से मिल रही वार्निंग को इग्नोर किया, यह कोस्टल एरिया था जहां पर अर्थक्वेक

और सुनामी आनी आम बात थी इसके साथ ही कंपनी प्लांट को सुनामी से बचाने के लिए कोस्टल वॉल बेहतर करने में नाकाम रही. ब्रेकवाटर 18.7 फीट से ऊपर की सुनामी से प्लांट को बचाया सकता था. 9.0 के अर्थक्वेक के साथ जो सुनामी आई वह 46 फीट थी. इससे भी ज्यादा यह कि लगातार दिया जाने वाला आफ्टरशॉक बर्बादी के असर को कम करने की कोशिशों के बीच दीवार बन गया. एक और वजह जिसके चलते फुकुशिमा-1 बर्बाद हुआ वह इसकी उम्र थी. फुकुशिमा प्लांट 1970 में लगाया गया था जिसमें अपग्रेडेड टेक्नोलॉजी नहीं थी. 2 मील दूर बने फुकुशिमा 2 को 1980 में बनाया गया, इसकी लेटेस्ट टेक्नोलॉजी ने इसे बर्बाद होने से बचा लिया था. मिसाल के तौर पर, फुकुशिमा-2 के जनरेटर एयर कूल्ड थे जबकि फुकुशिमा-1 के जनरेटर सीवाटर-कूल्ड थे. चेर्नोबिल की तरह फुकुशिमा की बर्बादी में भी ह्यूमन एरर का बड़ा हाथ था. ऑपरेटर ने कंप्यूटराइज्ड की मेकर जोकि प्लांट कूलिंग को मॉनिटर करता था, को नज़रअटंदाज़ कर दिया. अगर ऑटोमेटिक सिस्टम से छेड़छाड़ नहीं की जाती तो उसका एक्सप्लोजन रोका जा सकता था. एक छोटी सी गलती की वजह से चेन रिएक्शन हुआ, जिसके चलते पहले से खराब सिचुएशन तबाही में तब्दील हो गई जिसे टाला नहीं जा सकता.

नए पावर प्लांट डिजाइन को सोचने और बनाने में पैसे और वक्त दोनों लगेंगे

Atomic Accidents Book Summary in Hindi- 1950 में यूएस नेवी के एडमिरल हैमान रिकओवर ने न्यूक्लियर सबमरीन के लिए स्मॉल स्केल पावर प्लांट डिजाइन किया. थोड़े ही वक्त में उनकी डिजाइन न्यूक्लियर इंडस्ट्री में डोमिनेट करने लगी. ऐसा क्यों हुआ? सबसे पहले यह की यह डिजाइन काबिलियत रखने के साथ ही मज़बूत भी थी। कुछ शर्तों के तहत की डिजाइन बनाने के चैलेंज ने एडमिरल को नये आइडिया पर काम करने के लिए मोटिवेट किया. उनका जनरेटर जलाने से ज्यादा तेल बनाता था और दूसरा उन्हें लिक्विड सोडियम का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता था जिसका लीक होना बहुत खतरनाक नतीजे दे जाता था. उनकी इस डिजाइन की कामयाबी ने न्यूक्लियर इंडस्ट्री के लोगों को इसी तरह का डिजाइन अपनाने के लिए इंसपायर किया. आज के दौर में ऑपरेट हो रहे लगभग सभी न्यूक्लियर प्लांट में कहीं ना कहीं रिकओवर के डिजाइन की झलक है. बहुत सारे बेहतरीन डिजाइन अवेलेबल हैं लेकिन मार्केट कंडीशन और इंवेस्टमेंट की कमी के चलते उनकी इंपॉर्टेस रियलाइज़ नहीं की जा रही है। मिसाल के तौर पर, डायरेक्ट कॉटैक्ट रिएक्टर रिकओवर की डिजाइन के सामने बेहतरीन चैलेंज था. डीसीआर बहुत इफीशिएंट था इसका फ्यूल पिघला हुआ पेलैटोनियम था. 1960 तक लॉस अलामस में मॉकअप बना लिया गया था. लेकिन उस दौरान सरकार का प्रोजेक्ट बजट घट गया और यह प्रोजेक्ट कभी पूरा ही नहीं हुआ. इंजीनियर्स ने पिघले हुए नमक के रिएक्टर के साथ भी एक्सपेरिमेंट किया. इस रिएक्टर में थोरियम का इस्तेमाल किया गया, एक ऐसा रेडियोएक्टिव मेटल जो नेचर में बहुत ज्यादा तादाद में मौजूद है और जिसके फटने की भी पॉसिबिलिटी नहीं है, मतलब यह खुद ब खुद अलग होकर न्यूक्लियर रिएक्शन स्टार्ट नहीं कर सकता. यह क्वालिटी थोरियम को प्लूटोनियम और यूरेनियम से ज्यादा स्टेबल बनाती है. थोरियम से निकलने वाला रेडियोएक्टिव वेस्ट 300 साल बाद तक डेंजरस नहीं रहा, वही यूरेनियम से निकलने वाला वेस्ट लगभग 30,000 साल तक खतरनाक बना रहता है.

यह प्रोजेक्ट लगभग 4 साल तक चलता रहा लेकिन बाद में सिविल मार्केट में रिकओवर की डिजाइन के ट्रेंड की वजह से इसे छोड़ दिया गया. कुल मिलाकर न्यूक्लियर एनर्जी को बेहतर तरीके से प्रोड्यूस करने के लिए अल्टरनेटिव ढूंढने की कोशिश ना करना नाइंसाफी होगी.न्यूक्लियर पावर का खतरा हमारे बीच हमेशा मौजूद रहेगा. लेकिन जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी बेहतर होती है और इंजीनियर पास्ट की गलतियों से सीखते चलते हैं यह खतरे कम होते जाएंगे.

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कुल मिलाकर

न्यूक्लियर पावर खतरनाक हो सकता है, लेकिन पास्ट की गलतियों से सीख कर हम फ्यूचर के खतरों को कम कर सकते हैं. दुनिया भर के साइंटिस्ट एनवायरनमेंट या इंसान की ज़िन्दगी को खतरा पहुंचाए बिना इकनोमिक को फायदा पहुंचाने के तरीकों की खोज में लगातार लगे हुए हैं.

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